सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार | Meaning, Definition and Types of Social Stratification in hindi
▶सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ (Meaning of Social Stratification)
प्रत्येक समाज में किसी व्यक्ति अथवा समूह को उसकी जाति, आयु, लिंग, व्यवसाय, पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्व आदि के आधार पर उच्च अथवा निम्न स्तर प्रदान किया जाता है। उदाहरण के लिए अपने हिन्दू समाज को ही लीजिए। इसमें कभी ब्राह्मणों को उच्च स्तर पर और शूद्रों को निम्न स्तर प्रदान किया जाता था। समाजशास्त्रीय भाषा में इस प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं।
सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा (Definition of Social Stratification)
1. समाजशास्त्री जिस्बर्ट के अनुसार, "सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसे स्थायी समूहों और श्रेणियों में विभक्त कर देने की व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सभी समूह और श्रेणियाँ उच्चता और अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक दूसरे से बंधे हों।"
2. मूरे के अनुसार, "स्तरीकरण समाज का वह क्रमबद्ध विभाजन है जिसमें सम्पूर्ण समाज को कुछ उच्च अथवा निम्न सामाजिक इकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है।"
3. सदरलैंड और वुडवर्ड के अनुसार, "स्तरीकरण केवल विभेदीकरण की प्रक्रिया है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे व्यक्तियों की तुलना मैं उच्च स्थिति प्राप्त होती है।"
▶सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार (Types of Social Stratification)
सामाजिक स्तरीकरण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है- जातिगत और वर्गगत।
जातिगत स्तरीकरण:- जाति के आधार पर व्यक्ति अथवा समूह का सामाजिक स्तर निश्चित करना जातिगत स्तरीकरण कहा जाता है; जैसे – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र।
वर्गगत स्तरीकरण:- व्यक्तियों को उनकी योग्यता, कुशलता, पद, अधिकार और कर्तव्य आदि के आधार पर उन्हें उच्च अथवा निम्न वर्ग में विभाजित करना वर्गगत स्तरीकरण कहा जाता है; जैसे– पद के आधार पर आई०पी०एस०(IPS) ऑफिसरों का उच्चतम और सिपाहियों को निम्नतम स्तर पर रखना।
▶सामाजिक स्तरीकरण के आधार (Bases of Social Stratification)
सामाजिक स्तरीकरण के अनेक आधार होते हैं, जैसे- जाति, आयु, लिंग, व्यवसाय, आर्थिक स्थिति, पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्व, योग्यता, कुशलता और शिक्षा। प्रत्येक समाज अपने सामाजिक मूल्यों, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार इनमें से किन्हीं विशेष आधारों पर ही सामाजिक स्तरीकरण करता है। उदाहरण के लिए बन्द (रुढीवादी) समाजों में व्यक्ति की स्थिति प्रायः जाति, लिंग और व्यवसाय के आधार पर निश्चित की जाती है और खुले (प्रगतिशील) समाजों में शिक्षा, योग्यता, कुशलता, पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्वों के आधार पर की जाती है। यहाँ सामाजिक स्तरीकरण के कुछ मुख्य आधारों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-
(1). जाति (caste)
कुछ समाज ऐसे हैं जिनमें व्यक्ति अथवा समूह की सामाजिक स्थिति उनकी जाति अर्थात् जन्म के आधार पर निश्चित की जाती है। प्राचीन भारत में पूरा समाज चार वर्गों में बँटा था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तब ब्राह्मण की स्थिति में जन्में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उच्चतम और शूद्र जाति में जन्में व्यक्ति की स्थिति निम्नतम होती थी। परन्तु तब भी वर्ण विशेष के अन्दर व्यक्ति की स्थिति उसकी आयु, योग्यता एवं सफलता के आधार पर निश्चित होती थी।
(2). आयु (Age)
प्रायः सभी समाजों में बच्चों की अपेक्षा युवकों को, युवकों की अपेक्षा प्रौढ़ों को और प्रौढ़ों की अपेक्षा वृद्धों को अधिक अनुभवी एवं योग्य समझा जाता है और आयु में जो जितना अधिक होता है उसे समाज में उतना ही ऊँचा स्थान दिया जाता है। हमारे यहाँ आज भी जातीय समाजों में वृद्धों को उच्च सामाजिक स्तर प्राप्त होता है।
(3). लिंग (Sex)
कुछ समाजों में लिंग के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण किया जाता है। परन्तु इस आधार पर तो समाज में केवल दो वर्ग भर बनते हैं। किसी भी पुरुष अथवा स्त्री की समाज में स्थिति तो उसकी जाति, आयु, योग्यता, कुशलता, व्यवसाय व सम्पन्नता आदि के आधार पर ही निश्चित होती है।
(4). व्यवसाय (Occupation)
कुछ समाजों में कुछ व्यवसाय उच्च माने जाते हैं और कुछ निम्न उदाहरण के लिए हमारे भारतीय समाज में आज भी जूते बनाने, बाल काटने व पान बेचने आदि व्यवसायों को निम्न माना जाता है और जेवरात व कपड़ों का व्यापार करने, बड़ी-बड़ी फैक्ट्री चलाने को उच्च माना जाता। यही कारण है कि यहाँ उच्च व्यवसायों में लगे व्यक्तियों को समाज में उच्च स्थान दिया जाता है और निम्न व्यवसायों में लगे व्यक्तियों को निम्न।
(5). आर्थिक स्तर (Economic Status)
आज प्रायः सभी समाजों में सिद्धान्त रूप में कुछ भी हो परन्तु व्यवहार में यह देखने में आता है कि उनमें किसी व्यक्ति अथवा समूह का सामाजिक स्तर उसकी आर्थिक स्थिति के आधार पर निश्चित होता है। धनी व्यक्तियों की न कोई जाति पूछता है और न व्यवसाय।
(6). पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्व (Post, Rights and Duties)
शक्ति की तो सदैव से पूजा होती आ रही है। समाज में जिस व्यक्ति अथवा समूह के हाथ में जितनी अधिक शक्ति होती है उसे उतना ही उच्च स्थान प्राप्त होता है। समाज में जो व्यक्ति जितने ऊँचे पद पर होता है, उसे जितने अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं और वह जितने अधिक उत्तरदायित्वों से लदा होता है, उसे समाज में उतना ही ऊँचा स्थान दिया जाता है।
(7). ज्ञान एवं योग्यता (Knowledge and Competency)
वर्तमान युग विज्ञान और विशेषज्ञों का युग है। आज संसार के प्रगतिशील समाजों में किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर उसके ज्ञान, योग्यता, कुशलता और क्षेत्र विशेष में उसकी विशेषता के आधार पर निश्चित किया जाता है। खुले समाजों में वैज्ञानिक आविष्कार करने, अपने-अपने क्षेत्रों में नई-नई खोज करने और प्रशासन में ऊँचे-ऊँचे पदों पर जिम्मेदारी पूर्ण कार्य करने वालों को उच्चतम स्थान प्राप्त होता है।
(8). शिक्षा (Education)
प्रायः सभी समाजों में दो वर्ग होते हैं- शिक्षित और अशिक्षित और हर समाज में अशिक्षित की अपेक्षा शिक्षित लोगों को उच्च स्थान दिया जाता है, और शिक्षितों में भी जो जितना अधिक शिक्षित होता है उसे समाज में उतना ही ऊँचा स्थान दिया जाता है। और दूसरी बात इस सन्दर्भ में यह है कि उचित शिक्षा द्वारा ही मनुष्य अपनी योग्यता बढ़ाता है, कुशलता बढ़ाता है, ऊँचे-ऊँचे पद प्राप्त करता है। तब कहना न होगा कि शिक्षा सामाजिक स्तरीकरण का मूल आधार होती है।
▶शिक्षा और सामाजिक स्तरीकरण (Education and Social Stratification)
सामान्यतः समाज दो प्रकार के होते हैं- बंद समाज और खुले समाज. बंद समाजों के सामाजिक स्तरीकरण के मूल आधार जाति, आयु, लिंग और व्यवसाय होते हैं जबकि खुले समाजों में शिक्षा, योग्यता, कुशलता, पद एवं अधिकार होते हैं. यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो शिक्षा द्वारा ही व्यक्ति में योग्यता एवं कुशलता का विकास होता है और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही व्यक्ति उच्च पद प्राप्त करते हैं. इस प्रकार आज के खुले समाजों में सामाजिक स्तरीकरण का मूल आधार शिक्षा होती है. इस संदर्भ में शिक्षा आज दो कार्य करती है- पहला बंद समाजों के अंत और दूसरा प्रगतिशील समाजों का निर्माण.
(1). शिक्षा द्वारा बंद समाजों की समाप्ति (The end of closed societies by education)
जाति और धर्म पर आधारित रूढ़िवादी समाजों को बंद समाज कहते हैं. समाज में जैसे-जैसे शिक्षा का का प्रसार हो रहा है इन रूढ़िवादी समाजों का अंत होता जा रहा है. उदाहरण के लिए अपने भारतीय समाज को ही लीजिए. यह आज तक जाति और धर्म पर आधारित है और इसमें जन्म से ही ब्राह्मण के उच्च और शूद्र को निम्न स्थान दिया जाता है. परंतु जैसे-जैसे जन शिक्षा का प्रसार हो रहा है समाज में व्याप्त अंधविश्वासों का अंत हो रहा है. हमारे देश में ही नहीं पूरे संसार में जाति और धर्म की पकड़ ढीली होती जा रही है और व्यक्ति की योग्यता एवं कुशलता का महत्व बढ़ता जा रहा है.
(2). शिक्षा द्वारा प्रगतिशील समाजों का निर्माण (Building Progressive Societies by Education)
जन शिक्षा के द्वारा समाज को रूढ़िवादिता के घेरे से निकालना तो संभव है परंतु उसे प्रगतिशील समाज नहीं बनाया जा सकता. प्रगतिशील समाज के निर्माण के लिए जन शिक्षा के साथ-साथ व्यवसायिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी और प्रशासनिक शिक्षा की आवश्यकता होती है. आज हमारे संसार के प्रायः सभी समाज इस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयत्न कर रहे हैं और शिक्षा के द्वारा उनका स्वरूप प्रगतिशील बनता जा रहा है और इन समाजों में व्यक्तिगत सामाजिक स्तरीकरण उनकी योग्यता एवं पद के आधार पर किया जा रहा है.