शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, चर एवं कार्य | Concept of Teaching, Variables and Function in hindi

शिक्षण का अर्थ (Meaning of Teaching)

शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है शिक्षण शब्द अंग्रेजी भाषा के Teaching शब्द से मिलकर बना है, जिसका तात्पर्य है- सीखाना। शिक्षण एक त्रियामी  प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और छात्र, पाठ्यक्रम के माध्यम से अपने स्वरूप को प्राप्त करते हैं। अर्थात किसी विषय वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अंतःप्रक्रिया को ही हम शिक्षण कहते हैं.

शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, चर एवं कार्य (Concept of Teaching : Meaning, Definition, Objective, Variables and Function)

शिक्षण का संकुचित अर्थ (Narrower Meaning of Teaching)

शिक्षण के संकुचित अर्थ का संबंध स्कूली शिक्षा से है जिसमें अध्यापक द्वारा एक बालक को निश्चित स्थान पर एक विशिष्ट वातावरण मे निश्चित अध्यापको द्वारा उसके व्यवहार में पाठ्यक्रम के अनुसार परिवर्तन किया जाता है। इसमें शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को कक्षा में कुछ ज्ञान या परामर्श दिया जाता है.

प्राचीन काल मे शिक्षा, शिक्षक–केन्द्रित थी अर्थात शिक्षक अपने अनुसार बालको को शिक्षा देता था इसमे बालक के रुचियों एवं अभिरुचियों को ध्यान मे नहीं रखा जाता था। लेकिन वर्तमान समय मे शिक्षा बालक-केन्द्रित हो गई है. अर्थात वर्तमान समय मे बालक के रुचियों एवं अभिरुचियों के अनुसार शिक्षा दी जाती है।

शिक्षण का व्यापक अर्थ (Wider meaning of Teaching)

शिक्षण के व्यापक अर्थ में वह सब शामिल कर लिया जाता है जो व्यक्ति अपने पूरे जीवन मे सीखता है। अर्थात शिक्षण का व्यापक अर्थ वह है, जिसमें व्यक्ति औपचारिक, अनौपचारिक एवं निरौपचारिक साधनो के द्वारा सीखता है। इसमें शिक्षार्थी जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी समस्त शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास करता रहता है.

शिक्षण की परिभाषाएँ (Definitions of Teaching)

1. एचoसीo मॉरिसन के अनुसार, "शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें अधिक विकसित व्यक्तित्व कम विकसित व्यक्तित्व के संपर्क में आता है और कम विकसित व्यक्तित्व के अग्रिम शिक्षा के लिए विकसित व्यक्तित्व की व्यवस्था करता है".

2. बी० एफ० स्किनर के अनुसार, "शिक्षण पुनर्वलन की आकस्मिकताओं का क्रम है।"

3. बर्टन के अनुसार, "शिक्षण सीखने के लिए दी जाने वाली प्रेरणा, निदेशन, निर्देशन एवं प्रोत्साहन है।"

4. रायबर्न के अनुसार, "शिक्षण के तीन बिन्दु हैं – शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यवस्तु। इन तीनों के बीच संबंध स्थापित करना ही शिक्षण है। यह सम्बंध बालक की शक्तियों के विकास मे सहायता प्रदान करता है।"

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शिक्षण के प्रकार (Types of Teaching)

शिक्षण के प्रकार का संक्षिप्त विवरण निम्नािखत है-

(1). उद्देश्यों के आधार पर शिक्षण:- उद्देश्यों के आधार पर शिक्षण तीन प्रकार का हो सकता है-

  • (i) ज्ञानात्मक शिक्षण:- इस शिक्षण का मुख्य उद्देश्य ज्ञानात्मक पक्ष अथवा व्यवहार (जान, समझ, प्रयोग, विश्लेषण, संश्लेषण और मूल्यांकन आदि) को विकसित एवं पुष्ट करना होता है।
  • (ii) भावात्मक शिक्षण:- इसमें भावात्मक पक्ष को विकसित करने को प्रमुखता दी जाती। है। भावात्मक एवं संवेगात्मक शक्तियों एवं व्यवहारों का उन्नयन, परिमार्जन आदि शिक्षण को प्रक्रिया का प्रमुख अंग बन जाता है।
  • (iii) क्रियात्मक शिक्षण:- इस प्रकार के शिक्षण में व्यवहार परिवर्तन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस प्रकार के शिक्षण में किसी कौशल को या किसी कार्य को करने की विशिष्ट विधि को सिखाने की ओर बल दिया जाता है।

(2). शिक्षण की क्रिया की दृष्टि से:- शिक्षण एक गत्यात्मक संप्रत्यय एवं प्रक्रिया है तथा शिक्षण के समय अनेक प्रकार की क्रियाएँ होती हैं। इन क्रियाओं के आधार पर शिक्षण तीन प्रकार का हो सकता है—

  • (i) बतलाना:– शिक्षण के इस प्रकार के अन्तर्गत किसी संप्रत्यय, सिद्धान्त, विषय या वस्तु के बारे में बताना आदि आता है।
  • (ii) दिखाना या प्रदर्शन करना:- किसी कार्य, प्रक्रिया या कौशल को करके दिखाना प्रदर्शनात्मक शिक्षण के अन्तर्गत आता है।
  • (iii) कार्य करना:– शिक्षण के इस रूप में कौशलों एवं क्रियात्मक पक्ष के विकास को प्रमुखता दी जाती है।

(3). शिक्षण के स्तरों की दृष्टि से:- शिक्षण एक अविच्छिन्न एवं सातत्ययुक्त प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया किसी व्यक्ति के विभिन्न मानसिक स्तरों पर समान हो सकती है। उदाहरणस्वरूप, शिक्षण की प्रक्रिया विचारहीनता के निम्न स्तर से चलकर तर्क के विचारपूर्ण स्तर तक पहुँच सकती है। इस आधार पर शिक्षण तीन प्रकार का हो सकता है-

  • (i) स्मृति स्तर का शिक्षण:- इस प्रकार के शिक्षण में केवल इस बात का प्रयास किया जाता है कि दी गई सूचनाओं को अच्छी तरह याद रखा जा सके।
  • (ii) बोध स्तर का शिक्षण:- इस प्रकार के शिक्षण में यह प्रयास किया जता है कि केवल किसी तथ्य को याद न रखा जाये अपितु उसे समझ भी लिया जाये अर्थात् सम्प्रत्ययों का अर्थ, उनमें अन्तर्निहित विचार उनकी प्रकृति आदि को अच्छी प्रकार ग्रहण किया जाये।
  • (iii) चिन्तन स्तर का शिक्षण:- इस प्रकार के शिक्षण में रटने या समझने तक ही इसे सीमित नहीं रखा जाता, अपितु इस बात की चेष्टा की जाती है कि जिज्ञासा, रुचि, अनुसंधान, धैर्य आदि का भी विकास हो ताकि किसी समस्या को वैज्ञानिक दृष्टि से समझा जा सके और उसे तर्कपूर्ण ढंग से सुलझाया जा सके।

(4). शासन और प्रशासन के अनुसार:- देश की शासन प्रणाली अथवा शिक्षा व्यवस्था की प्रणाली का शिक्षण के स्वरूप पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार की प्रशासनिक प्रणाली में शिक्षण दिया जाता है, यह उसी प्रकार का रूप धारण कर लेता है। प्रशासन के आधार पर शिक्षण सामान्यतया तीन प्रकार का हो सकता है-

  • (i). एक तंत्रात्मक शिक्षण (Autocratic Teaching):- इस शिक्षण पद्धति में शिक्षक केंद्र बिन्दु होता है एवं शिक्षक का स्थान प्रधान माना गया है और छात्र का स्थान गौण. इसमें छात्र के सभी क्रियाओं का शिक्षक द्वारा मार्गदर्शन एवं दिशा प्रदान किया जाता है। एक तंत्रात्मक शिक्षण में शासक की विचारधारा को ही वरीयता दी जाती है, छात्रों को उसके आदेशों का पालन करना पड़ता है, इस कारण शिक्षक छात्रों को अशुद्ध ज्ञान भी दे सकता है.
  • (2). लोकतंत्रात्मक शिक्षण (Democratic Teaching):- इस शिक्षण पद्धति को छात्र-सहगामी शिक्षण व्यवस्था कहा जाता है। इसमें छात्र एवं शिक्षक दोनों ही प्रमुख भूमिका मे होते हैं। इस पद्धति में बालक पाठय वस्तु के संबंध में वार्तालाप तथा अशाब्दिक क्रिया कर सकता है। इस शिक्षण में शिक्षक का स्थान एक निर्देशक अथवा पथ प्रदर्शक के रूप में माना जाता है तथा छात्र एवं शिक्षक दोनों को ही एक दूसरे के विचारों का सम्मान करना होता है.
  • (3). स्वतंत्रात्मक शिक्षण (Laisses Teaching):- स्वतंत्रात्मक शिक्षण पद्धति को मुकतात्मक शिक्षण पद्धति के नाम से भी जाना जाता है। यह शिक्षण पद्धति नवीन शिक्षण पर आधारित है। इसमें बालक दबाव एवं बाधा मुक्त होकर सीखता है। इसमें शिक्षक छात्र की रचनात्मक प्रकृति को बढावा देता है। इस प्रकार का शिक्षण करते समय शिक्षक छात्र के साथ मित्रवत व्यवहार करता है।

(5). शिक्षण की व्यवस्था की दृष्टि से:- व्यवस्था की दृष्टि से शिक्षण तीन प्रकार का हो सकता है-

  • (i) औपचारिक शिक्षण:— इसमें शिक्षण सौद्देश्यपूर्ण होता है। शिक्षण आयु, समय एवं स्थान के अनुसार एक सुनिश्चित पाठ्यक्रम के आधार पर चलता है।
  • (ii) अनौपचारिक शिक्षण:- इस प्रकार के शिक्षण का स्वरूप औपचारिक शिक्षण से भिन्न होता है। पाठ्यक्रम समय, स्थान एवं आयु से बँधा हुआ नहीं होता। शिक्षण के पीछे कोई अभिप्राय या योजना भी नहीं होती। शिक्षण ग्रहण करने वाला भी अपने आप अनपेक्षित रीति से ज्ञान, विचार या कोई विश्वास ग्रहण कर लेता है।
  • (iii) निरौपचारिक शिक्षण:- इसमें शिक्षण निश्चित उद्देश्यों के आधार पर संगठित किया जाता है, किन्तु इसमें किसी पाठ्यक्रम, समय, स्थान एवं आय का बन्धन नहीं रहता।

शिक्षण की प्रकृति (Nature of Teaching)

निम्नलिखत कथनों के रूप में शिक्षण की प्रकृति की व्याख्या की जा सकती है-

(1). शिक्षण एक अन्तः प्रक्रिया है:- यह शिक्षक तथा छात्रों के मध्य विशेष कार्य के लिए संचालित होती है। इसमें शिक्षण की वह प्रक्रिया कक्षा-कक्ष में चलती है जिसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों निहित रहते हैं। यदि शिक्षक कोरा व्याख्यान देता रहे और शिक्षार्थी निष्क्रिय श्रोता चना रहे तो अन्तः क्रिया सम्भव नहीं होगी।

(2). शिक्षण कला तथा विज्ञान दोनों ही है:- शिक्षण की प्रकृति कलात्मक तथा वैज्ञानिक दोनों ही है। शिक्षण नियोजन तथा मूल्यांकन क्रियाओं की प्रकृति वैज्ञानिक अधिक है जबकि शिक्षण का प्रक्रिया पक्ष कलात्मक है जिसमे शिक्षक अपने कौशल का प्रयोग करता है। शिक्षण का प्रस्तुतीकरण वाला पक्ष कला है जिसमें शिक्षक द्वारा उपयुक्त शिक्षण कौशलों का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है कि विषय-वस्तु का शिक्षार्थियों को अच्छी प्रकार बोध हो जाये तथा अन्य शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाये। शिक्षण नीरस न बन जाये, इसके लिए मनोरंजन का पुट भी दिया जाता है।

(3). शिक्षण एक विकासात्मक प्रक्रिया है:- शिक्षण प्रक्रिया के द्वारा बालकों का विकास किया जाता है और उनसे व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाया जाता है। ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों का विकास किया जाता है।

(4). शिक्षण एक सतत प्रक्रिया है:- शिक्षण निरन्तर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जो शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की सम्प्राप्ति तक चलती ही रहती है। इसके तीन पक्ष हैं— क्रिया, शिक्षण एवं मूल्यांकन।

(5) शिक्षण एक निर्देशन की प्रक्रिया है:- शिक्षण में छात्रों की योग्यताओं के अनुसार उनके विकास का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार लक्ष्य निर्देशन का होता है।

(6). शिक्षण एक त्रिघुवीय प्रक्रिया है:- अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षण को त्रिध्रुवीय प्रक्रिया कहा है। ब्लूम के अनुसार, शिक्षण के तीन पक्ष- (i) शिक्षण उद्देश्य, (ii) सीखने के अनुभव तथा (iii) व्यवहार परिवर्तन हैं।

(7). शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है:- शिक्षण की क्रियाएँ किन्हीं विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये की जाती है। उनके लिये उसी प्रकार नियोजित प्रक्रिया का स्वरूप अपनाती है।

(8). शिक्षण एक सामाजिक तथा व्यावसायिक प्रक्रिया है- शिक्षण की प्रक्रिया शिक्षण तथा छात्रों के समूह में ही सम्पादित की जाती है। कम-से-कम एक शिक्षक और एक छात्र होना नितान्त आवश्यक होता है। शिक्षण एक व्यावसायिक क्रिया है जिसे व्यक्ति अपने जीविकोपार्जन का साधन बनाते है जिन्हें शिक्षक कहते हैं।

(9). शिक्षण का मापन किया जाता है:- शिक्षण का मापन शिक्षक के व्यवहार के रूप में किया जाता है। निरीक्षण विधियों द्वारा शिक्षक व्यवहारों का मापन और व्यवहार के स्वरूप का विश्लेषण भी किया जाता है।

(10). शिक्षण एक विज्ञान है:- शिक्षण का प्रस्तुतीकरण का कौशल पक्ष कला है, परन्तु इनकी क्रियाओं का तार्किक निरीक्षण एवं मूल्यांकन भी किया जा सकता है। यह इसको वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।

(11). शिक्षण एक औपचारिक तथा अनौपचारिक प्रक्रिया है:- शिक्षा प्रक्रिया विद्यालय में निश्चित कार्यक्रम के अनुसार सम्पादित की जाती है और विद्यालय के बाहर भी संचालित की जाती है।

शिक्षण के कार्य (Functions of Teaching)

शिक्षण के निम्नलिखित कार्य हैं-

  1. कक्षा को संगठित तथा व्यवस्थित रुप प्रदान करना।
  2. अधिगम (सीखने) की परिस्थितियों का निर्माण करना।
  3. विषय वस्तु तथा कार्य का विश्लेषण करना।
  4. सीखने के लिए विद्यार्थी को प्रेरित करना
  5. छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की जानकारी प्रदान करना।
  6. बच्चों को सामान्य से सृजनात्मक प्राणी के रुप में विकसित करना।
  7. छात्रों के अधिगम की समस्याओं का निदान करना।
  8. छात्रों के प्रारंभिक व्यवहार को समझना।
  9. अभिवृद्धि, विश्वास संप्रत्यय एवं समस्याओं को स्पष्ट करना।
  10. छात्रों के अंतिम व्यवहार की जांच करने के लिए मूल्यांकन करना।
  11. पाठ्यक्रम सामग्री तैयार करना।
  12. मूल्यांकन करना।

शिक्षण की विशेषताएं (Characteristics of Teaching)

  1. शिक्षण का स्पष्ट एवं निश्चित लक्ष्य रखना.
  2. छात्र प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा देना.
  3. प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्यों के प्रति छात्रों में रुचि का विकास करना.
  4. छात्र नेतृत्व एवं उत्तरदायित्व को प्रोत्साहन देना.
  5. कार्य को छात्रों की क्षमता एवं वातावरण के अनुकूल बनाना.
  6. छात्रों के ध्यान को केंद्रित करना.
  7. पूर्व ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान प्रदान करना.
  8. त्रुटियों को निर्धारित करना और उन्हें ठीक करना.
  9. छात्रों की प्रगति का मापन एवं मूल्यांकन करना.
  10. परीक्षा के परिणाम से छात्रों को अवगत कराना.
  11. शिक्षक का ईमानदार होना.

शिक्षण के घटक या चर (Components or Variables of Teaching)

शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और शिक्षार्थी सजीव ध्रुव होते हैं जबकि पाठ्यवस्तु निर्जीव ध्रुव होते हैं. शिक्षण के संदर्भ में कहा जा सकता है कि शिक्षण, शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य पाठ्यक्रम क्रिया को माध्यम बनाकर चलने वाले अंतः प्रक्रिया है. उक्त तथ्यों के आधार पर शिक्षण की प्रक्रिया में तीन चोरों को पुष्टि होती है-

(1). स्वतंत्र चर (Independent Variable)- स्वतंत्र चर के अंतर्गत शिक्षक आता है. यह अधिगम अनुभव प्रदान करने के लिए विभिन्न कार्य करता है.

(2). आश्रित चर (Dependent Variable)- आश्रित चर के अंतर्गत छात्र आते हैं क्योंकि शिक्षण प्रक्रिया में नियोजन व्यवस्था व प्रस्तुतीकरण के अनुसार कार्य करना पड़ता है.

(3). हस्तक्षेप चर (Intervening Variable)- शिक्षण प्रक्रिया में पाठ्यवस्तु, शिक्षण विधियां, शिक्षण युक्तियां, शिक्षण व्यूह, आदी हस्तक्षेप चर हैं.

शिक्षण घटकों के कार्य (Functions of Teaching Components)

शिक्षण प्रक्रिया के संचालन में शिक्षण घटकों का महत्वपूर्ण स्थान है. शिक्षण चरों को तीन प्रमुख क्रियाएं करनी होती हैं-

  1. निदान करना
  2. उपचार देना
  3. मूल्यांकन करना

(1). निदानात्मक क्रियाएं (Diagnostic Functions)- इसमें स्वतंत्र चर शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है. शिक्षक यह निर्णय लेता है कि शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षार्थी का पूर्व-व्यवहार तथा कौशल क्या होना चाहिए? जिससे छात्र नवीन ज्ञान को सीख सकें और उद्देश्यों की अधिकतम प्राप्ति की जा सके. इस कार्य में शिक्षक पाठ्यवस्तु तथा विद्यार्थी दोनों को ही ध्यान में रखता है. इसमें निम्नांकित बातों पर विचार किया जाता है और उनके संबंध में शिक्षक निर्णय लेता है-

  1. शिक्षण की समस्याओं का विश्लेषण करना
  2. छात्रों के पूर्व व्यवहार का निर्धारण करना
  3. व्यक्तिगत विभिन्नता की जानकारी करना
  4. कार्य विश्लेषण करना

(2). उपचारी कार्य (Prescriptive Functions)- शिक्षक तथा छात्र आपसी संबंध के बारे में निर्णय लेते हैं क्योंकि चरों में ही सही संबंध स्थापित करने पर ही उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है. शिक्षण युक्तियों तथा प्रविधियों के संबंध में भी निर्णय लिया जाता है. इस कार्य का मुख्य लक्ष्य अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाना है. इसके दो प्रमुख तत्व हैं-

  1. शिक्षण-कौशल को व्यवहार में लाना.
  2. पृष्ठपोषण की विधियों की समुचित व्यवस्था करना.

(3). मूल्यांकन कार्य (Evaluation Functions)- मूल्यांकन शिक्षण का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है. बिना मूल्यांकन के शिक्षण-प्रक्रिया को पूर्ण नहीं मान सकते हैं. इसका प्रमुख कार्य द्वितीय कार्य की प्रभावशीलता की जांच करना है. मूल्यांकन का मानदंड उद्देश्यों की प्राप्ति माना जाता है. यदि उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो सकी है तो इसका अर्थ यह होता है कि शिक्षक का उपचार दोषपूर्ण है. इस पक्ष के दो प्रमुख तत्व होते हैं-

  1. मानदंड परीक्षा की रचना करना
  2. व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करना

शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्वव (Need and Importance of Teaching)

  1. शिक्षण एक कौशल युक्त प्रक्रिया है। शिक्षण का तात्पर्य ज्ञान प्रदान करना है।
  2. छात्रों के व्यवहारों एवं मनोवृत्तियों में शिक्षण द्वारा परिवर्तन लाया जाता है।
  3. वर्तमान तथा भावी जीवन की सफलता के लिए शिक्षण एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में है।
  4. अनुदेशन प्रारूप तैयार करने के लिए शिक्षण वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।
  5. छात्रों को ज्ञान प्रदान करने हेतु शिक्षण आवश्यक है।
  6. शिक्षण छात्रों को सूचनाएँ प्रदान करता है।
  7. छात्रों में विभिन्न योग्यताओं एवं क्षमताओं को विकसित करने के लिए शिक्षण आवश्यक है।
  8. शिक्षण छात्रों को जीवन के अनुभवों से अवगत कराता है।

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