शिक्षण के सूत्र एवं अवस्थाएं | Maxims and Phases of Teaching in hindi
शिक्षण के सूत्र (Maxims of Teaching)
अध्यापक की प्रभावशीलता, विषय पर स्वामित्व तथा उसमें व्यवसायिक योग्यता होते हुए भी यह आवश्यक नहीं कि वह छात्रों के लिए उपयोगी प्रमाणित हो. वास्तविक अर्थ में तो अध्यापक वह है जो अपने ज्ञान तथा अनुभव की व्याख्या छात्र के मस्तिष्क तक पहुंचा सके. कक्षा के अंदर अध्यापक का मुख्य लक्ष्य होता है कि वह एक ऐसा वातावरण का सृजन करें, जिसमें अधिक से अधिक सीखने की क्रियाएं तथा सीखने के अनुभवों को उत्पन्न किए जा सके. इसी दृष्टि से मनोवैज्ञानिक खोजों के आधार पर शिक्षाशास्त्र ने कुछ शिक्षण-सूत्रों को प्रतिपादित किया है. यह शिक्षण-सूत्र निम्न प्रकार हैं-
- ज्ञात से अज्ञात की ओर (From known to unknown)
- स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From concrete to abstract)
- सरल से जटिल की ओर (From simple to complex)
- प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (From direct to indirect)
- पूर्ण से अंश की ओर (From whole to part)
- अनिश्चित से निश्चित की ओर (From indefinite to definite)
- विशिष्ट से सामान्य की ओर (From particular to general)
- मनोवैज्ञानिक से तार्किक क्रम की ओर (From psychological to logical)
- विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From analysis to Synthesis)
- प्रकृति का अनुसरण (Follow Nature)
(1). ज्ञात से अज्ञात की ओर:- सीखने की प्रक्रिया में बालक अपने पूर्व अर्जित ज्ञान तथा अनुभवों को नए ज्ञान एवं अनुभव से जोड़ना चाहता है. बालकों को किसी नवीन विषय का ज्ञान उसके पूर्व ज्ञान के आधार पर ही देना चाहिए. शिक्षण क्रिया में अध्यापक भी बालक के प्रति यही कार्य करता है. वह बालक के पूर्व ज्ञान के आधार पर नए ज्ञान को जोड़ने की चेष्टा करता है. इसके लिए उसे 'ज्ञात से अज्ञात की ओर' के शिक्षण सूत्र को अपनाना पड़ता है. जैसे यदि बालकों को विविध फूलों तथा पत्तियों के बारे में ज्ञान कराना हो तो सर्वप्रथम उनके आकार तथा रंगों के बारे में जानकारी करानी होगी और इसके बाद उन्हें भिन्न-भिन्न गुण तथा प्रयोगों के बारे में बतलाना होगा.
(2). स्थूल से सूक्ष्म की ओर:- बालक के समझने की क्रिया में पहले स्थूल वस्तुओं का स्थान होता है. जैसे-जैसे उसके अनुभव का क्षेत्र बढ़ता जाता है, वह सूक्ष्म विचारों को ग्रहण करने लगता है. जैसे आरंभ में उसका ज्ञान किन्ही एक या दो पशुओं को देखने तक सीमित रहता है, किंतु बाद में चलकर पशुओं के बारे में अमूर्त विचार विकसित हो जाते हैं. भाषा में उसका शब्दकोश पहले उन्हीं शब्दों से मिलकर बना होता है जो मूर्त या स्थूल रूप में उसके सामने विद्यमान हैं, किंतु आगे चलकर एक ऐसा स्तर आता है, जिसमें उसका शब्दकोष सूक्ष्म अथवा अमूर्त गुणों या विचारों को प्रकट करने वाले शब्दों से मिलकर बनता है. सीखने की प्रक्रिया का या एक स्वाभाविक क्रम है. शिक्षण में अध्यापक को चाहिए कि पहले मूर्त एवं स्थूल विचारों को प्रस्तुत करें उसके तदुपरांत अमूर्त एवं सूक्ष्म विचारों की ओर बढ़े.
(3). सरल से जटिल की ओर:- इस सूत्र के अनुसार बालकों को पहले सरल बातों तथा बाद में कठिन बातों की ओर ले जाना चाहिए. हमारी यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि हम सबसे पहले सरल वस्तुओं को समझने का प्रयास करते हैं, तत्पश्चात कठिन वस्तुओं को समझते हैं. बालकों का मानसिक विकास धीरे-धीरे जिस क्रम में होता है उसी क्रम में उन्हें सरल से कठिन विषयों का ज्ञान कराना चाहिए. जैसे भाषा की शिक्षा में पहले सरल वाक्यों तथा बाद में जटिल वाक्यों का ज्ञान कराना चाहिए.
(4). प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर:- जो वस्तुएं तथा घटनाएं बालक के अनुभव क्षेत्र में प्रत्यक्ष ढंग से मौजूद होते हैं, उनका ज्ञान बालक को सरलता पूर्वक हो जाता है. बस्तुओं तथा घटनाओं के परोक्ष रूप में होने से उनका बालक के ज्ञानकोष में प्रविष्ट कराना कठिन कार्य होता है. अतः शिक्षक को चाहिए कि अपने विषय से संबंधित ज्ञान को पहले प्रत्यक्ष ढंग से तथा बाद में परोक्ष ढंग से प्रस्तुत करें. शिक्षण का यह चौथा सूत्र है. यह सूत्र बहुत कुछ 'ज्ञात से अज्ञात की ओर, वाले सूत्र से मिलता जुलता है.
(5). पूर्ण से अंश की ओर:- किसी विषय या वस्तु का ज्ञान कराते समय छात्रों को पहले उस विषय या वस्तु का पूर्ण रूप फिर अंश रूप में कराना चाहिए. जैसे हमारे सामने एकाएक जहाज आने पर यह निश्चित है कि पहले हम उसके पूरे रूप को देखेंगे तब धीरे-धीरे हमारा ध्यान उसके एक एक अंग की ओर जाएगा. अतः अध्यापक को चाहिए कि वह छात्रों को किसी विषय का ज्ञान कराते समय सबसे पहले उसके पूर्ण रूप का ज्ञान छात्रों को कराएं फिर धीरे-धीरे उसकी अंगो के बारे में बताएं.
(6). अनिश्चित से निश्चित की ओर:- प्रारंभ में बालकों को किसी भी विषय का ज्ञान अनिश्चित रहता है. धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों वे विकास को प्राप्त करते जाते हैं, अनिश्चित ज्ञान निश्चित होता जाता है. जैसे प्रारंभ में बच्चे सभी प्रकार के पक्षियों को एक ही नाम लेकर पुकारते हैं. वे विभिन्न प्रकार के पक्षियों की विभिन्नताओं को नहीं समझ पाते. धीरे-धीरे उनका यह अनिश्चित ज्ञान निश्चित हो जाता है. अध्यापकों को चाहिए कि वह बालकों के अनिश्चित ज्ञान को शिक्षण द्वारा धीरे-धीरे निश्चित करें.
(7). विशिष्ट से सामान्य की ओर:- इस सूत्र के अनुसार बालकों के सामने कोई विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर उन्हें कोई सामान्य सिद्धांत निकालने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. इसी को दूसरे शब्दों में आगमन विधि कहते हैं. बालक के सीखने की प्रक्रिया में यह बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें अध्यापक सर्वप्रथम छात्रों के सामने विभिन्न प्रकार का उदाहरण रखता है, फिर इन उदाहरणों के आधार पर उन्हें कोई सामान्य सिद्धांत निकालने के लिए प्रोत्साहित करता है. जैसे- छात्रों को 'विशेषण' के विषय में बताने के लिए हम सर्वप्रथम छात्रों के सामने उदाहरण के रूप में कुछ वाक्य प्रस्तुत करेंगे जिनमें विशेषण का प्रयोग हुआ हो, फिर इन वाक्यों के बारे में विचार विमर्श करेंगे.
(8). मनोवैज्ञानिक से तार्किक क्रम की ओर:- शिक्षण में मनोवैज्ञानिक तथा तार्किक दोनों क्रमों का समन्वय होता है. मनोवैज्ञानिक क्रम से अभिप्राय है कि किसी विषय का प्रस्तुतीकरण बालकों की रूचि, जिज्ञासा, उत्साह, आयु, ग्रहण-शक्ति आदि के अनुसार हो. तार्किक क्रम से यह तात्पर्य है कि विषय को तर्कपूर्ण ढंग से कई खंडों में विभाजित कर लिया जाए और अध्यापक इन खंडों को क्रमशः छात्रों के सम्मुख व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करें. शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही क्रम को समन्वित करना आवश्यक है. इसके अंतर्गत बालक की रूचि, योजनाओं, तथा आवश्यकताओं पर अधिक बल दिया जाता है.
(9). विश्लेषण से संश्लेषण की ओर:- यह सूत्र 'पूर्ण से अंश की ओर' वाले सूत्र के विपरीत मालूम पड़ता है. परन्तु यह 'पूर्ण से अंश के सिद्धांत' का पूरक है, विरोधी नहीं. हम पहले 'पूर्ण से अंश की ओर' के सूत्र के अनुसार संपूर्ण वस्तु पर छात्रों का ध्यान केंद्रित कर पुनः उसे विभिन्न भागों में विभाजित कर उसका विस्तृत अध्ययन करते हैं, फिर 'विश्लेषण से संश्लेषण' की ओर वाले सूत्र के अनुसार विभिन्न भागों में संपूर्ण की ओर बढ़ते हैं. इस तरह कोई भी पाठ केवल 'पूर्ण से अंश की ओर' वाले सूत्र से पूर्ण स्पष्ट नहीं हो सकता इसके लिए उपरोक्त सूत्र का भी प्रयोग में लाना होगा.
10. प्रकृति का अनुशरण:- शिक्षण का यह सूत्र रूसो के शिक्षा सिद्धांतों से निकला है. इसके अनुसार अध्यापक को प्रकृति का अनुसरण करते हुए बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास के नियमों के अनुकूल ही शिक्षा के साधन तैयार किए जाने चाहिए. यदि ऐसा ना किया जाए तो बालक के प्राकृतिक विकास में कठिनाई होती है और उसका व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है. शिक्षण का यह सूत्र प्रत्येक विषय की शिक्षा का आधारभूत तत्व है.
शिक्षण सूत्रों का उपयोग (Uses of Teaching Maxims)
- शिक्षा की पाठ्यवस्तु के स्वरूप को विकसित करने में.
- कक्षा में पाठ को आरंभ करने से पूर्व, ज्ञात से अज्ञात की ओर अग्रसर होने में.
- शिक्षण द्वारा अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने में.
- शिक्षण सूत्रों के उपयोग से उद्देश्यों की प्राप्ति करने में.
- शिक्षण के सभी स्तरों- स्मृति, बोध तथा चिंतन स्तर में.
- प्राथमिक स्तर से विश्वविद्यालय स्तर के सभी विषयों में.
शिक्षण की अवस्थाएं (Phases of Teaching)
शिक्षण में क्रियाओं का विशेष महत्व है. क्रियाओं के माध्यम से विद्यार्थियों को सीखने में बहुत अधिक सहायता मिलती है. क्रियाओं द्वारा ही सीखने के अनुभव स्वाभाविक रूप से प्राप्त होते हैं. शिक्षण के विभिन्न चरणों में यह क्रियाएं अलग-अलग होती हैं. शिक्षण के यह चरण निम्नलिखित हैं-
- शिक्षण का पूर्व क्रिया चरण (Pre-active phase of teaching)
- शिक्षण का अंतः क्रिया चरण (Interactive phase of teaching)
- शिक्षण का उत्तर क्रिया चरण (Post-active phase of teaching)
शिक्षण का पूर्व क्रिया चरण (Pre-Teaching Stage)
शिक्षा के पूर्व क्रिया चरण में योजना की तैयारी की जाती है. इसमें वे सभी क्रियाएं आ जाती हैं जिन्हें शिक्षक शिक्षण अथवा कक्षा में प्रवेश करने से पहले करता है. इस पूर्व तत्परता स्तर में निम्नलिखित क्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं-
- शिक्षण के उद्देश्यों को निर्धारित करना.
- पाठ्यवस्तु के संबंध में निर्णय लेना.
- प्रस्तुतीकरण के लिए क्रमबद्ध व्यवस्था करना.
- शिक्षण की विधियां एवं प्रवृत्तियों के संबंध में निर्णय लेना.
- विषय वस्तु के लिए युक्तियों का विकास करना.
शिक्षण का अंतः क्रिया चरण (Interaction Stage of Teaching)
शिक्षण के अंतः क्रिया चरण में वे सभी क्रियाएं सम्मिलित होती हैं, जिन्हें शिक्षक कक्षा में प्रवेश करने के समय से लेकर पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करने के समय तक करता है. शिक्षण अंतः क्रिया स्तर पर शिक्षक छात्रों को अनेक प्रकार की शाब्दिक अभिप्रेरणा प्रदान करता है, जैसे प्रश्न पूछना, सुनना, अनुक्रिया करना, व्याख्या करना तथा निर्देशन देना आदि. शिक्षण की अंतः क्रिया अवस्था पर निम्नलिखित क्रियाओं प्रमुख रूप से होती हैं-
- कक्षा के आकार की अनुभूति
- छात्रों का निदान
- क्रिया तथा प्रतिक्रिया
शिक्षण का उत्तर-क्रिया चरण (Response Stage of Teaching)
इस चरण में शिक्षण कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात शिक्षक विद्यार्थियों की व्यवहार का मापन करने के लिए उनसे मौखिक अथवा लिखित प्रश्न पूछता है, जिससे निष्पत्तियों का सही मूल्यांकन हो जाए. मूल्यांकन पक्ष में उन सभी क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है, जो प्रश्न पूछने से संबंधित होते हैं. सोपान की प्रमुख क्रियाएं निम्नलिखित हैं-
- शिक्षण द्वारा व्यवहार परिवर्तन
- समुचित मूल्यांकन प्रवृत्तियों का चयन
- मूल्यांकन से छात्रों की निष्पत्तियों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति