शिक्षण के सिद्धान्त | Principles of Teaching in hindi

शिक्षण सिद्धांत (Teaching Principle)

बचपन में अधिकतर लोगों से एक सवाल पूछा जाता है कि आप बड़े होकर क्या बनेंगे? कुछ का जवाब होगा, बड़े होकर मैं टीचर बनूंगा/बनूंगी. कभी आपने जानने का प्रयास किया कि शिक्षक कैसे बनते हैं? या शिक्षण का मतलब क्या है? वास्तव में शिक्षक वह है जिसे पढ़ाना आता हो, पढ़ाने का कार्य शिक्षण कहलाता है और शिक्षण करने की प्रक्रिया में हम कुछ आधारों का अनुगमन करते हैं. इन्हीं आधारों और मान्यताओं को शिक्षण के सिद्धांत कहा जाता है. शिक्षण का एक निश्चित उद्देश्य होता है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शिक्षण विधि एक प्रमुख मार्ग का काम करती है. शिक्षण के सिद्धांत निम्लिखित हैं-

(1). प्रेरणा का सिद्धांत (Principle of Motivation)

मानव स्वभाव है- प्रशंसा से खुश और आलोचना से मायूस होना. प्रशंसा पाकर हम और अच्छा प्रदर्शन या मेहनत करने की ठान लेते हैं और उसमें सफल भी होते हैं. यह प्रशंसा और शाबाशी ही मनोविज्ञान की भाषा में प्रेरणा कहलाती है. प्रेरणा ही प्राणी को क्रियाशील बनाती है. व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया जो किसी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है, प्रेणात्मक होती है.

वास्तव में प्रेरणा वह प्रक्रिया है जो समस्त प्रकार के शिक्षण को प्रारंभ करती है और जारी रखते हुए पूरा होने तक चलती रहती है. शिक्षक को चाहिए कि वह प्रेरक तत्वों द्वारा अधिगम को रुचिकर बनाए ताकि प्रभावी संप्रेषण संभव हो सके. एक बार प्रेरित होने के बाद सीखने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है और इसी में शिक्षण की सफलता निहित है. वर्तमान शिक्षण विधि में प्रेरणा को बहुत ही महत्व दिया गया है. बिना प्रेरणा के बालक किसी भी कार्य में रुचि नहीं ले सकता. सफल शिक्षण वही है जिसमें बालकों को अध्यापक द्वारा स्वयं कार्य करने के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा मिलती है.

(2). क्रिया का सिद्धांत (Principle of Activity)

इसका अर्थ है करके सीखना. यह सिद्धांत बाल मनोविज्ञान का आधारभूत सिद्धांत है. इसमें सीखने वाले का पूरी अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रहना परम आवश्यक है. आधुनिक शिक्षण विधि में करके सीखने के सिद्धांत का पूर्णरूपेण पालन हो रहा है. बालक का विकास भाषण सुनने और पुस्तकों को रटने से नहीं हो सकता. यह उसी शिक्षण विधि के द्वारा हो सकता है जो बालक को अधिक से अधिक शारीरिक और मानसिक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है. इसी को सफल शिक्षण विधि कहते हैं. इसमें बालकों को तर्क और चिंतन करने एवं समस्याओं से लड़ने का अधिक से अधिक अवसर दिया जाता है.

जैसे साइकिल सीखने की प्रक्रिया में साइकिल को पकड़ना, पेडल मारना, कई बार साइकिल चलाते समय गिर जाना आदि  को हम स्वयं जब तक साइकिल के साथ क्रिया नहीं करते तब तक हम साइकिल चलाना नहीं सीख सकते.

स्पष्ट है शिक्षण का कार्य भी बिना क्रियाशील हुए संभव नहीं है. जितनी अधिक क्रियाशीलता उतनी अधिक सीखने की प्रक्रिया सरल और उद्देश्य पूर्ण होगी. मोंटेसरी, किंडरगार्टन और डाल्टन ऐसी ही कुछ पद्धतियां है जो क्रियाशीलता पर जोर देती हैं. महात्मा गांधी द्वारा चलाई गई बेसिक योजना तथा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में करके सीखने को मूलभूत सिद्धांत के रूप में मान्यता दी गई है.

(3). रुचि का सिद्धांत (Principle of Interest)

जिस विषय या क्रिया में हमारी रुचि होती है, उसको हम आसानी से सीख लेते हैं. कारण कि हम उसको बड़ी तत्परता के साथ करते हैं. इसलिए कुछ कुशल शिक्षक शिक्षण विधियों को निर्धारित करते समय बालकों की रूचि पर विशेष ध्यान देते हैं. इसके लिए वह शिक्षण के विशेष सामग्रियों का चयन करते समय बालक की इच्छाओं, आवश्यकताओं और उसके चारों ओर व्याप्त परिस्थितियों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं. रुचि के सिद्धांत के अनुसार शिक्षण कार्य ऐसा हो कि सीखने वाला उसे तन्मय होकर सीखे. शिक्षक, शिक्षण सामग्री को इस तरीके से प्रस्तुत करें कि कक्षा का अनुशासन बना रहे और अधिगमकर्ता सीखने के प्रति सक्रिय रहे.

(4). निश्चित उद्देश्य का सिद्धांत (Principle of Definite Aim)

कोई भी प्राणी अनायास (useless)काम नहीं करता. उसके प्रत्येक काम का कोई ना कोई निश्चित उद्देश्य होता है. उस उद्देश्य के प्रति उसके हृदय में जितनी आस्था और निष्ठा होती है, उसको प्राप्त करने के लिए उतना ही वह अधिक प्रयास करता है. व्यक्ति कोई भी कार्य अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करता है. इसलिए कार्य करने वाले को कार्य के उद्देश्य से पर्याप्त प्रेरणा मिलती है. उद्देश्य निश्चित होने से दूसरा प्रत्यक्ष लाभ होता है कि बालक जो कार्य करते हैं उसको क्रमबद्ध किया जा सकता है. कोई भी कार्य किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है और वह कार्य उस उद्देश्य की प्राप्ति तक चलता है. वैसे ही कक्षा में भी बालकों को पहले प्रकरण का उद्देश्य बता दिया जाता है और उनको उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास करने के लिए उत्तेजित किया जाता है. जिस कार्य का उद्देश्य जितना ही स्पष्ट होता है वह उतना ही प्रेरणादायक होता है, इसी के साथ व्यक्ति उसको उतने ही लगन और निष्ठा के साथ करता है.

(5). नियोजन का सिद्धांत (Principle of Planning)

शिक्षण हो या कोई भी कार्य, उसका पूरा होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह कार्य योजना बनाकर किया गया है या नहीं. शिक्षण करते समय प्रत्येक शिक्षक को अपने शिक्षण योजना बनानी चाहिए, उसके प्रस्तुतीकरण का क्रम ज्ञात हो ताकि सीखने वाला भ्रमित ना हो कि गुरु जी ने आज क्या पढ़ाया था? वर्तमान शिक्षण कार्य में प्रत्येक प्रशिक्षु को पाठ योजना बनाने एवं उसके अभ्यास पर जोर दिया जाता है. एक कुशल शिक्षक शिक्षण विधियों को निर्धारित करते समय बालकों की रूचि पर विशेष ध्यान देते हैं. इसके लिए वह शिक्षण के विषय सामग्री का चयन करते समय बालक की इच्छा आवश्यकताओं का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं.

(6.) चयन का सिद्धांत (Principle of Selection)

हम बीमार हैं तो अगर हमें डॉक्टर के पास जाना हो और विद्यालय भी जाना हो तो इस समय जो ज्यादा जरूरी होगा उसी का चयन करेंगे ताकि दूरगामी प्रभाव हमारे पक्ष में हो इसी स्थिति को चयन करना कहते हैं. शिक्षण भी एक जटिल कार्य है, जिसमें हमें विभिन्न विषयों को पढ़ना-समझना होता है. चयन के सिद्धांत के अनुसार शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले उपयोगी तत्वों का चयन कर लेना चाहिए और अनुपयोगी तत्वों को छोड़ देना चाहिए. एक प्रकरण में केवल उन्हीं तत्वों या विषय सामग्रियों को लेना चाहिए, जिससे उद्देश्य की प्राप्ति समय के अंदर और सफलतापूर्वक हो सके. विषयों का चयन करते समय अध्यापक को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-

  • विषय सामग्री की मात्रा इतनी हो कि इससे उद्देश्य की प्राप्ति हो सके.
  • विषय सामग्री छात्रों की रुचि और योग्यता के अनुसार हो.
  • समय के अंदर समाप्त हो जाने वाला हो.
  • विषय सामग्री जीवनपयोगी हो.

(7). विभाजन का सिद्धांत (Principle of Division)

इसे लघु सोपानों का सिद्धांत भी कहते हैं. शिक्षण स्वयं में व्यापक प्रक्रिया है. इसको सफल बनाने का सबसे सरल तरीका है इसे विभाजित करके पढ़ाया जाए. शिक्षक को चाहिए पाठ्यवस्तु को विभाजित करके सरल से कठिन की ओर अग्रसर हों ताकि तारतम्यता (क्रमबद्धता) बनी रहे और संप्रेषण व्यवहारिक बना रहे. किसी पाठ का 'पाठसूत्र' बनाते समय हम लोग प्रस्तावना, उद्देश्य, कथन, प्रस्तुतीकरण, सामान्यीकरण, प्रयोग आदि अनेक सोपान बनाते हैं. जैसे व्याकरण का ज्ञान देने के लिए हम पहले अक्षर ज्ञान देंगे, शब्द बनाना सिखाएंगे, फिर वाक्य कैसे बनाए जाते हैं, यह बताएंगे तब व्याकरण की दृष्टि से इनका प्रयोग बताएंगे.

(8). आवृत्ति का सिद्धांत (Principle of Revision)

यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि किसी क्रिया या विषय-वस्तु को सीखने पर आत्मसात करने के बाद उसको कई बार दोहरा लेना चाहिए. इससे विषय का ज्ञान टिकाऊ एवं उपयोगी हो जाता है. थोर्नडाईक ने इसी को अभ्यास के नियम की संज्ञा दी है. आप सभी ने यह जुमला अक्सर सुना होगा- "करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान! रस्सी आवत जात है सिल पर परत निशान" इसका आशय है कि जिस कार्य को हम बार-बार करते हैं, वह कार्य आसान हो जाता है. शिक्षण में जिस पाठ या तत्व को हम बार-बार पढ़ते-पढ़ाते हैं, उस पर हमारी पकड़ अच्छी होती है और उसमें रुचि व ध्यान भी केंद्रित होता है.

(9). रचना का सिद्धांत (Principle of Creation)

सफल शिक्षण वही है जो बालकों की रचनात्मक शक्ति का विकास करता है. इसके लिए अध्यापक को चाहिए कि वह शिक्षा में बालकों को इस प्रकार की क्रियाओं को करने के लिए प्रोत्साहित करें जो रचनात्मक हों. इस रचनात्मक क्रियाओं में बालकों का मस्तिष्क, हाथ और ह्रदय तीनों का योग होता है. इससे वह विषय में पर्याप्त रुचि लेता है, क्योंकि विषय का भार किसी एक अंग पर नहीं पड़ता. शिशु के लिए प्रयुक्त होने वाले 'किंडरगार्टन' और 'मोंटेसरी' विधि में बच्चों को रचना करने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है. वर्तमान में सभी आधुनिक शिक्षण विधियां इस सिद्धांत का सम्मान करती हैं.

(10). वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांत (Principle of Individual Defferences)

प्रत्येक बालक अपनी रुचि, शारीरिक, मानसिक दशाओं और योग्यताओं में एक दूसरे से भिन्न होता है. इसी को व्यक्तिक विभिन्नता कहते हैं. एक कक्षा में कुछ मंदबुद्धि के बालक होते हैं, जो विषय को बहुत देर में समझते हैं और कुछ ऐसे भी छात्र होते हैं, जो थोड़े से संकेत पर ही विषय को समझ लेते हैं. अध्यापकों को चाहिए कि वह इन दोनों प्रकार के छात्रों पर हमेशा ध्यान रखें अन्यथा शिक्षण कुछ छात्रों की समझ में आएगा और कुछ की नहीं.

(11). पूर्व ज्ञान का सिद्धांत (Principle of Previous Knowledge)

इस सिद्धांत के अनुसार बालकों को किसी नवीन विषय का ज्ञान उनके पूर्व ज्ञान के आधार पर ही देना चाहिए. बालक जितना जानता है उसी से संबंधित जो नवीन ज्ञान दिया जाता है वह टिकाऊ होता है. जैसे कक्षा में बच्चों को हिरण के बारे में बताना है, परंतु बच्चों ने कभी हिरन को नहीं देखा है. बकरी के शरीर की बनावट बहुत कुछ हिरन से मिलती जुलती है और बच्चों ने बकरी को देखा भी है तो ऐसी अवस्था में अध्यापक हिरण का परिचय बकरी के आधार पर देता है, तो बच्चे हिरण के विषय में अच्छी तरह से जान पाएंगे.

(12). जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धांत (Principle of Linking with Life)

शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है. शिक्षा के द्वारा ही मानव जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है. इसलिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में शिक्षा को जीवन से जोड़ने की बात पर जोर दिया गया है. शिक्षा देने का कार्य शिक्षण के माध्यम से होता है, शिक्षक को किसी भी पाठ को पढ़ाते समय उन तथ्यों, पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो विद्यार्थी को उसके जीवन की क्रिया से जोड़ते हैं. यह संबंध स्थापित हो जाने पर नया ज्ञान या कौशल बालक के जीवन का स्थाई अंग बन जाता है और वह इस ज्ञान का प्रयोग जीवन में आने वाली परिस्थितियों को सुलझाने में करता है. सभी नवीन शिक्षण विधियों में इस सिद्धांत का पूर्णरूपेण पालन किया जाता है.

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