लैंगिक विभेद का अर्थ, कारण, प्रभाव एवं समाप्ति के उपाय | Gender Bias in hindi
लैंगिक विभेद का अर्थ (Meaning of Gender Bias)
लैंगिक विभेद से हमारा अभिप्राय बालक एवं बालिका में व्याप्त लैंगिक असमानता से हैं. बालक एवं बालिकाओं में उनके लिंग के आधार पर विभेद किया जाता है जिसके कारण बालिकाओं को समाज में, शिक्षा में एवं पालन-पोषण में बालकों से कम रखा जाता है जिससे वे पिछड़ जाती हैं. यही लैंगिक विभेद है क्योंकि बालिकाओं एवं बालकों में यह विभेद उनके लिंग को लेकर किया जाता है. प्राचीन काल से ही बालकों को श्रेष्ठ, कुल का तारनहार, कुल का नाम आगे बढ़ाने वाला माना जाता है जिसके कारण बालिकाएं उपेक्षा का पात्र बनती हैं. इस प्रकार प्राचीन मान्यताओं, सामाजिक कुप्रथाओं आदि के कारण लिंग के आधार पर किया जाने वाला विभेदभाव लिंगीय विभेद कहलाता है.
प्रोफेसर एस.के. दुबे के अनुसार, "लैंगिक विभेद का आशय उन कल्पनाओं, विचारों झुकाव एवं प्रवृत्तियों से होता है जो समाज के द्वारा रूढ़िवादिता एवं प्राचीन परंपराओं के रूप में स्वीकृत होती हैं एवं उनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है. यह पुरुष प्रधानता की ओर संकेत करती है."
श्रीमती आर.के. शर्मा के अनुसार, "लैंगिक विभेद स्त्री पुरुष के मध्य अधिकार तथा शक्तियों का अवैज्ञानिक तथा तार्किक विभाजन है जो कि स्त्री वर्ग को दुर्बल तथा निम्न स्तरीय बताने का प्रयास करते हैं एवं पुरुष वर्ग को प्रधानता की ओर प्रवृत करते हैं."
लैंगिक विभेद के कारण (Reason behind Gender Bias)
समाज में लैंगिक विभेद आज से नहीं वरन प्राचीन काल से चला आ रहा है. यह विभेद मात्र भारत में ही नहीं वरन् विश्व के तमाम देशों में चल रहा है. समान्यतः विभेद कई प्रकार के होते हैं जैसे- जातिगत विभेद, लिंगीय विभेद, भाषाई विभेद, प्रजातीय विभेद, रंगगत विभेद, सांस्कृतिक विभेद, स्थानगत विभेद, आर्थिक विभेद आदि. वस्तुतः सभी प्रकार के विभेद मानवता के लिए खतरा है क्योंकि इन विभेदों के कारण ही मानव में एकता स्थापित करने में समस्या आती है. लैंगिक वि विभेद कि बहुत से कारण है जो निम्नलिखित हैं-
(1). प्राचीन मान्यताएं:- अथर्ववेद में या कहा गया है कि स्त्री को बाल्यावस्था में पिता के, युवावस्था मे पति के तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए. मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों को हमेशा पति व पुत्र के अधीन रखा गया है. भारत में माता-पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए भी पुत्र की आवश्यकता पड़ती है. इन सब मान्यताओं के कारण माता-पिता पुत्र की चाह करते हैं.
(2). पुरुष प्रधान समाज:- भारतीय समाज पुरुष प्रधान है. जहां पर पुत्रों को पिता का उत्तराधिकारी माना जाता है. बच्चों के नाम के आगे पिता का नाम ही लगाया जाता है. वंश परंपरा बढ़ाने के लिए माता-पिता, दादा-दादी आदि को पुत्र की आवश्यकता होती है. लड़की को शादी के बाद पति के घर पर ही जाकर रहना पड़ता है. उसके नाम के आगे उसके पति का नाम ही लगता है. यहां तक कि अंतिम संस्कार, पिंड, मोक्ष आदि के लिए भी पुत्र की आवश्यकता होती है. पिता की संपत्ति भी पुत्रों को मिलती है. इन सब कारणों से बालिकाओं का महत्व बालकों से कम आंका जाता है और लिंग विभेदभाव में वृद्धि होती है.
(3). सांस्कृतिक कुप्रथाएं:- प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति पुरुष-प्रधान रही है. भारतीय संस्कृति में धार्मिक एवं यज्ञीय कार्यों में भी पुरुष की उपस्थिति अपरिहार्य है एवं कुछ कार्य में तो स्त्रियों के लिए पूर्णतया निषेध है. अतः ऐसी स्थिति में पुरुष प्रधान हो जाता है तथा इस स्त्री का स्थान गौण हो जाता है.
(4). मनोवैज्ञानिक कारक:- मनोवैज्ञानिक कारकों की भी लैंगिक विभेद में महत्वपूर्ण भूमिका है. प्रारंभ से ही स्त्रियों के मन मस्तिष्क में यह बात बिठा दी जाती है कि पुरुष, महिलाओं से अधिक श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें पुरुषों की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए. पुरुष के बिना स्त्रियों का कोई अस्तित्व नहीं है तथा उनसे ही उनकी पहचान तथा सुरक्षा है. इस प्रकार महिलाओं में यह मनोवैज्ञानिक धारणा बैठ जाती है कि पुरुष उनसे श्रेष्ठ हैं तथा वे स्वयं महिला होकर भी बालिकाओं के जन्म एवं उनके सर्वांगीण विकास का विरोध करती हैं.
(5). दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली:- भारतीय शिक्षा प्रणाली अत्यंत दोषपूर्ण है जिसके कारण व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन से शिक्षा का संबंध नहीं हो पाता. विशेष रूप से बालिकाओं के संबंध में शिक्षा अव्यावहारिक होने से शिक्षा पर किए गए व्यय एवं समय की भरपाई नहीं हो पाती. अतः बालिकाओं की शिक्षा ही नहीं, अपितु इस लिंग के प्रति भी लोगों में बुरी भावना व्याप्त हो जाती है.
(6). संकीर्ण विचारधारा:- लोगों की संकीर्ण विचारधारा लड़के तथा लड़की में विभेद का एक कारण है. लोगों का मानना है कि लड़के मां-बाप की वृद्धावस्था का सहारा बनेंगे, वंश को आगे बढ़ाएंगे, उन्हें पढ़ाने-लिखाने से घर की उन्नति होगी जबकि लड़की को पढ़ाने लिखाने में धन एवं समय की बर्बादी होगी. यद्यपि वर्तमान में बालिकाएं लोगों की सकीर्ण सोच को तोड़ने का कार्य कर रही है. इसके बावजूद बालिकाओं के कार्यक्षेत्र चौका-बर्तन तक ही सीमित माना जाता है. अतः बालिकाओं की भागीदारी को स्वीकार न किए जाने के कारण बालकों के अपेक्षा बालिकाओं के महत्व को कम माना जाता है जिससे लैंगिक विभेद में वृद्धि होती है.
(7). जागरूकता का अभाव:- शिक्षा की कमी के कारण अभी भी ग्रामीण इलाकों में जागरूकता का अभाव है और ऐसा माना जाता है कि स्त्रियों का क्षेत्र घर व बच्चों की देखभाल तक ही है इसलिए उन्हें ज्यादा शिक्षा दिलाने की आवश्यकता नहीं है. लड़कियों को घर पर ही रहना है, अतः उन्हें अतिरिक्त पोषण की आवश्यकता भी नहीं है इसलिए बालक व बालिकाओं में शिक्षण तथा पोषण आदि स्तरों पर भी भेदभाव किया जाता है.
(8). सामाजिक कुप्रथाएँ:- सूचना एवं तकनीकी के इस युग में भी भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की कुप्रथाएं एवं अंधविश्वास व्याप्त है जो इस प्रकार हैं-
(i). बाल विवाह:- बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं के चलते बालिकाओं को कम उम्र में शादी करके विदा कर दिया जाता था और उनसे पढ़ने व आगे बढ़ने के अधिकार छीन ले जाते थे. बाल विवाह तो अब संविधान द्वारा समाप्त हो गए हैं फिर भी अधिकतर माता-पिता का जोर लड़की का जल्दी से जल्दी विवाह करने पर होता है. उसके लिए पढ़ने-लिखने, आगे बढ़ने के अवसर सीमित हो जाते हैं. उसके जीवन का ध्येय घर तथा बच्चों की देखभाल तक सीमित रह जाता है.
(ii). दहेज प्रथा:- प्राचीन समय में माता-पिता जब बेटी का विवाह करते थे तो यह सोच कर कि वह नए घर में संकोच करेगी, उसकी जरूरत का सामान उसके साथ भेजते थे. यह माता-पिता का संतान के प्रति वात्सल्य का प्रदर्शन था. धीरे-धीरे दिखावे ने जोर पकड़ा और यह प्रथा अपनी संपदा का प्रदर्शन करने के लिए काम आने लगी. लड़के वाले लालच में आकर दहेज की मांग रखने लगे. हद तो तब हुई जब लालच पुरा न होने पर वधू के साथ मारपीट, यहां तक कि उसकी हत्या भी होने लगी.
(iii). सुरक्षा के कारण:- प्रकृति ने स्त्री को मानसिक तौर पर बहुत मजबूत बनाया है फिर भी शारीरिक तौर पर पुरुषों से कमजोर है इसलिए समझा जाता है कि स्त्री को हमेशा पुरुष के सहारे की आवश्यकता होती है. वह अपनी सुरक्षा अपने आप नहीं कर सकती. 15 साल की बहन के साथ 10 साल का भाई उसकी सुरक्षा के लिए भेजकर माता-पिता निश्चिंत हो जाते हैं. प्रायः लड़कियों को पढ़ने या नौकरी के लिए अलग शहर में भेजने में माता-पिता घबराते हैं. दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड जैसी घटनाओं से यह डर दिन व रात बढ़ता चला जा रहा है.
(iv). गरीबी:- गरीबी भारत का बहुत बड़ा अभिशाप है. बालकों को बालिकाओं से अधिक प्राथमिकता इसलिए दी जाती है क्योंकि वे बड़े होकर आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बांटने का कार्य करेंगे, दूसरी तरफ लड़की के बड़े होने पर दहेज के रूप में बड़ा खर्च करना पड़ेगा, आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता को इन परिस्थितियों में लड़की बोझ व लड़का बुढ़ापे का सहारा लगता है. यह समस्या एक क्षेत्र की नहीं बल्कि भारत में सभी जगह व्याप्त है क्योंकि एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है. अतः गरीबी कम होने पर रोक लगाई जा सकती है.
लैंगिक विभेद का प्रभाव (Effect of Gender Bias)
इन सब बातों के कारण समाज पर बहुत से कुप्रभाव पड़ रहे हैं जो इस प्रकार हैं-
(1). कन्या भ्रूणहत्या (Female Foeticide):- तकनीकी में सुधार के साथ भ्रूण के स्वास्थय के विषय में जानने के लिए सोनोग्राफी आदि की तकनीकी का विकास हुआ जिससे बच्चे के विकास, वंशानुगत बीमारी के साथ-साथ लिंग का पता भी चल जाता है. यह तकनीकी इसलिए विकसित हुई थी कि अविकसित या कमजोर भ्रूण को जन्म देने से रोका जा सके परंतु उसका दुरुपयोग तब होने लगा जब जन्म से पूर्व लिंग जांच कर कन्या भ्रूणों को जन्म से पूर्व खत्म किया जाने लगा.
(2). असंतुलित लिंगानुपात (Imbalance Gender Ratio):- कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते चलन के कारण धीरे-धीरे समाज में स्त्रियों की संख्या कम होने लगी. जनगणना के अनुसार 1991 में हजार लड़कों पर 945 लड़कियां थी और 2001 में यह और कम होकर 927 लड़कियां ही रह गई. हरियाणा, राजस्थान जैसे राज्यों में यह अनुपात और कम है. स्थिति ऐसी है कि बड़े-बड़े शहरों में नवरात्रि के समय होने वाले कन्या भोज के लिए भी लड़कियां नहीं मिलती.
(3). मानसिक कुप्रभाव (Mental Ill-Effect):- हर जगह भेदभाव को सहन कर महिलाएं मानसिक रूप से कुंठित हो जाती हैं. उनके मानसिक स्वास्थ्य पर इसका कुप्रभाव पड़ता है और वह स्वयं मानने लगती हैं कि पुरुष उनसे श्रेष्ठ हैं. स्वयं स्त्री होकर अपने बेटे-बेटी में भेदभाव करने लगती हैं. इस प्रकार यहां तक कि वे प्रथाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं.
लैंगिक विभेद की समाप्ति के उपाय (Measures to Eliment Gender Bias)
लैंगिक विभेद की समाप्ति के निम्नलिखित उपाय हैं-
(1). जागरूकता का प्रचार (Spreading Awareness):- किसी भी तरह की सामाजिक बुराई को दूर करने का एकमात्र उपाय सामान्य जन में जागरूकता लाना है. इसके लिए सरकार शिक्षण संस्थान, जनशिक्षा के माध्यम जैसे- अखबार, टी.वी. रेडियो आदि को मिलकर काम करना पड़ेगा जिससे लड़के लड़कियों के लिंग को लेकर पीढ़ियों से चले आ रहा है विभेद को दूर किया जा सकेगा. लेखक, गीतकार, टी.वी. प्रोग्राम बनाने वाले, फिल्मकार आदि इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. ये लोग अपनी रचनाओं में नारी का महत्व तथा ईश्वर द्वारा बनाए नारी-पुरुष दोनों रूपों की बराबरी को दर्शा सकें. इस प्रकार जन शिक्षा के माध्यमों का जनमानस पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है. समाज में इन विषयों पर जागरूकता पैदा करने के लिए लैंगिक भेदभाव के दुष्प्रभाव को बताना बहुत जरूरी है.
(2). बालिका शिक्षा का प्रचार (Spreading Girl Child Education):- लिंग विभेद का बहुत बड़ा कारण लड़कियों को कम शिक्षित होना या व्यवसायिक के रूप से शिक्षित ना होना होता है. बालिकाओं के लिए अलग से स्कूल, कॉलेज तथा व्यवसायिक कॉलेज खोले जाने चाहिए जहां वह आसानी से एवं सुरक्षित रूप से पहुंच सके. अगर लड़कियां पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होंगी तो उनमें आत्मविश्वास का संचार होगा और समाज में उनका महत्व बढ़ेगा.
(3). शिक्षा व्यवस्था में सुधार (Improvement in Educational System):- शिक्षा व्यवस्था में इस प्रकार से सुधार हो जिससे बालिकाओं के लिए समस्याएं कम हों. ऐसा पाठ्यक्रम हो जिसमें बालिकाओं की रूचि हो. शिक्षा बालिकाओं के वास्तविक जीवन से जुड़ी हो. महिला शिक्षा भी व्यवसाय केंद्रित हो जिसे पढ़कर उन्हें रोजगार प्राप्त हो. इससे परिवार भी उन्हें पढ़ाने में विशेष रूचि लेगा. विद्यालयों में लिंग आधारित विभेदभाव बिल्कुल खत्म होना आवश्यक है.
(4). सामाजिक कुप्रथाओं पर रोक (Ban on Social Malpractices):- सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं जो महिलाओं के प्रगति में बाधक हैं उन्हें समाप्त कर मुख्यधारा को मुख्य धारा में जोड़ा जाना चाहिए. कुछ धार्मिक कर्मकांड ऐसे हैं जो सिर्फ पुरुष आधारित हैं. अभी हाल में कुछ मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर हंगामा हुआ. महिलाएं भी पुरुषों की तरह भगवान की अनुपम कृति हैं. उन्हें सभी प्रकार के कर्मकांड करने का अधिकार मिलनी चाहिए.
(5). सुरक्षात्मक वातावरण (Protective Atmosphere):- महिलाओं के खिलाफ दिन प्रतिदिन अपराध जैसे- बालात्कार, एसिड से हमला, अपहरण आदि बढ़ने से माता-पिता की लड़कियों को लेकर चिंता बढ़ती रहती है. सुरक्षात्मक वातावरण होने से लड़कियों को न केवल असुरक्षा की भावना की वजह से पीछे रहना पड़ेगा बल्कि अभिभावक भी निः शंक रह सकेंगे.
(6). समानता और समता (Equality and Equity):- महिलाओं को सभी प्रकार के अधिकार पुरुषों के समान मिलने चाहिए और इसके लिए उन्हें विशेषाधिकार भी मिलना चाहिए जिससे कि वह पुरुषों की बराबरी कर सकें. भारतीय संविधान में स्त्रियों के विकास तथा उनकी क्षमता के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं. जरूरत है तो इन सबको मानस तक पहुंचाने की.
(7). गलत सामाजिक परंपराओं एवं मान्यताओं की समाप्ति (Abolition of Fals Social Traditions and Beliefs):- प्राचीन काल से ही हमारे समाज में कुछ मान्यताएं एवं परंपराओं का पालन किया जा रहा है. इनके पालन के पीछे व्यक्तियों में सामाजिक एवं धार्मिक भय व्याप्त है. इन गलत परंपराओं व मान्यताओं को धीरे-धीरे समाप्त करने की आवश्यकता है क्योंकि सभी स्त्री एवं पुरुष दोनों लिंगों की समानता की बात पर विचार कर सकते हैं.
(8). प्रशासनिक प्रयास (Administrative Efforts):- लैंगिक विभेद को समाप्त करने में प्रशासनिक प्रयासों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है. अतः सरकार के द्वारा जो भी नियम कानून बनाए गए हैं उनका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए. लैंगिक विभेद को कम करने के लिए प्रशासन द्वारा साहसी एवं प्रतिभावन महिलाओं एवं बालिकाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिससे जनसामान्य की बालिकाओं के विषय में धारणा परिवर्तित हो सके.