द्रोपदी का स्वयंवर | Draupadi ka Swayamvar | Mahabharat

द्रोपदी-स्वयंवर

एकचक्रा नगरी में रहते हुए पाण्डवों को काफी समय बीत गया था, तभी उन्होंने सुना कि पांचाल नरेश द्रुपद अपनी पुत्री द्रोपदी का स्वयंवर कर रहे हैं। पाण्डवों की भी इच्छा हुई कि उस स्वयंवर को देखने चला जाए, किंतु माता कुंती के सामने अपनी इच्छा कहने में उन्हें संकोच हुआ।

Draupadi ka Swayamvar | Mahabharat

कुंती ने उनके मन की इच्छा ताड़ ली और बोलीं- "युधिष्ठिर! यहां रहते हुए अब मेरा मन भर गया है। सुना है पांचाल देश अति सुंदर है। क्यों न कुछ समय के लिए वहां चला जाए?"

“जैसी आपकी आज्ञा माते!” युधिष्ठिर को जैसे मन की इच्छा पूरी होती लगी।

एकचक्रा नगरी के अन्य ब्राह्मणों के साथ पांचों पाण्डव और कुंती यात्रा करते हुए पांचाल देश जा पहुंचे। वहां का सौंदर्य देखकर वे आनंद से अभिभूत हो गए। स्वयंवर के कारण सारे नगर को खूब सजाया गया था। दूर-दूर से राजकुमार स्वयंवर में आ रहे थे। उनके ठहरने और आवभगत का सुंदर प्रबंध किया गया था। पाण्डवों ने अपनी माता के साथ एक कुम्हार के घर में डेरा डाला।

स्वयंवर वाले दिन पांचों पाण्डव, ब्राह्मण वेश में स्वयंवर मंडप में दर्शकों के बीच जा बैठे। स्वयंवर-मंडप में एक बड़ा धनुष रखा था। बीच में एक स्तम्भ था। उस स्तम्भ पर एक सोने की मछली टंगी हुई थी। उसके नीचे एक चक्रनुमा यंत्र घूम रहा था। नीचे एक चांदी के पात्र में निर्मल जल भरा था। मछली की परछाई उस जल में पड़ रही थी।

पाण्डवों ने नजर घुमाकर देखा तो वहां देश-विदेश के राजकुमारों में धृतराष्ट्र के सौ पुत्र, कर्ण, शकुनि, श्रीकृष्ण, शिशुपाल, जरासन्ध और शल्य जैसे वीर उपस्थित थे। श्रीकृष्ण लगातार पाण्डवों की ओर ही देख रहे थे। अर्जुन और श्रीकृष्ण की दृष्टि मिली तो श्रीकृष्ण मुस्करा दिए। अर्जुन भी मुस्कराए और दृष्टि नीची करके अर्जुन ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।

कुछ देर बाद द्रोपदी अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ मंडप में आई। धृष्टद्युम्न ने मंडप के बीच में आकर घोषणा की— “सभी उपस्थित वीर सुनें! यह धनुष है और ये बाण हैं। मछली की आंख लक्ष्य है, जिसका संधान नीचे जल में देखकर करना है, जो वीर ऐसा कर पाएगा, उसी के साथ मेरी बहन द्रोपदी का विवाह होगा।"

धृष्टद्युम्न की घोषणा सुनकर वहां उपस्थित सभी धनुर्धारियों ने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर लक्ष्य भेदने का प्रयत्न किया, परंतु अधिकांश तो धनुष की प्रत्यंचा ही नहीं चढ़ा पाए और लज्जित होकर बैठ गए। शिशुपाल, जरासन्ध, शल्य, दुर्योधन जैसे पराक्रमी राजकुमार असफल हो गए।

किंतु जब अंग नरेश कर्ण की बारी आई तो द्रोपदी ने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया- मैं किसी सूत पुत्र से विवाह नहीं करूंगी।"

द्रौपदी की बात सुनकर अपमान बोध से भरे कर्ण ने सूर्य की ओर देखा और धनुष रखकर अपने आसन पर जा बैठा। इस पर सारे सभा मंडप में खलबली मच गई। शोर होने लगा। सबसे ज्यादा दुर्योधन चिल्लाया— “यह मेरे मित्र का अपमान है।"

तब धृष्टद्युम्न ने हाथ उठाकर सबको शांत किया और गंभीर वाणी में बोला- "आप लोग शांत हो जाएं। मैं यह घोषणा करता हूं कि जो कोई भी इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर लक्ष्य भेद करेगा, वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो। मेरी बहन द्रोपदी उसका वरण करेगी। यह मेरा वचन है।"

धृष्टद्युम्न की घोषणा के उपरांत दुर्योधन ने कर्ण को पुनः प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा, किंतु कर्ण ने साफ इंकार कर दिया। जब कोई भी आगे नहीं बढ़ा तो ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन उठा और सहज चाल चलते हुए मंडप के मध्य में आ गया। मंडप में उपस्थित सभी ब्राह्मण एक स्वर से अर्जुन को ब्राह्मण युवक समझकर उसका उत्साह बढ़ाने लगे।

तब अर्जुन ने भगवान नारायण का ध्यान करके श्रीकृष्ण की ओर देखा और तत्काल धनुष उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी और नीचे जल में देखते हुए पलक झपकते ही लक्ष्य भेद कर दिया।

सभा में कोलाहल मच गया। हजारों ब्राह्मणों ने अपने-अपने अंगोछे फेंककर अपनी खुशी को अभिव्यक्त किया। उन्हें ऐसा लगा कि जैसे ब्राह्मण युवक ने ही द्रोपदी का स्वयंवर जीत लिया है। द्रोपदी ने आगे बढ़कर उस तेजस्वी ब्राह्मण वेश धारी अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी।

अर्जुन अपने भाइयों के साथ द्रोपदी को लेकर कुम्हार के घर आए। उनके पीछे छिपता-छिपाता धृष्टद्युम्न भी आया। कुम्हार के घर पहुंचकर युधिष्ठिर ने दरवाजे पर आवाज दी- "माते! दरवाजा खोलो। देखो हम तुम्हारे लिए क्या लाए हैं?

उसकी आवाज सुनकर कुंती ने भीतर से ही उत्तर दिया- "जो लाए हो उसे पांचों भाई आपस में बांट लो।"

माता की बात सुनकर युधिष्ठिर और अन्य सभी चौंक पड़े। व्याकुल होकर युधिष्ठिर ने फिर कहा- "माते! दरवाजा तो खोलो।"

कुंती ने दरवाजा खोला और पाण्डवों के साथ द्रोपदी को देखकर वह चौंक पड़ी— "हे भगवान! मैंने यह क्या कह दिया।" परेशान होकर उसने पूछा- "कौन है ये?"

“माते! यह द्रोपदी है।” युधिष्ठिर ने उसका परिचय दिया— “भ्राता अर्जुन ने इसे स्वयंवर में विजित किया है।"

कुंती उन्हें अपने घर में ले आई। काफी विचार के बाद तय हुआ कि द्रोपदी पांचों भाइयों से ही विवाह करेगी। उसी समय श्रीकृष्ण ने वहां पहुंचकर व्यवस्था दी– “बुआ! द्रोपदी एक वर्ष तक एक भाई की पत्नी होकर रहेगी। इस बीच यदि कोई दूसरा भाई द्रोपदी वाले कक्ष में भूल से भी चला गया तो उसे बारह वर्ष तक अज्ञातवास में रहना होगा।"

पांचों पाण्डवों ने श्रीकृष्ण द्वारा बताए सुझाव को स्वीकार कर लिया। धृष्टद्युम्न उन्हें लेकर राजभवन आ गया। राजभवन पहुंचकर युधिष्ठिर ने अपना और अपने भाइयों तथा माता का परिचय राजा द्रुपद को दिया। राजा द्रुपद यह जानकर बहुत प्रसन्न हो उठे कि द्रोपदी का वरण स्वयं अर्जुन ने किया है। अब उन्हें द्रोणाचार्य के बैर-भाव का कोई डर नहीं रहा।

किंतु जब उसने यह सुना कि द्रोपदी को पांचों पाण्डवों से विवाह करना होगा, तो वह विचलित हो उठा। वह बोला– “यह तो अन्याय है। यह विचार ही घृणा के योग्य है। किसी धर्म में ऐसा नहीं है। यह संसार की प्रचलित रीति के विरुद्ध है। ऐसा अनुचित विचार आपके मन में कैसे उठा।”

युधिष्ठिर ने राजा को उत्तर दिया— “महाराज! क्षमा करें, हम अपनी माता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते। हमारी माता का हमें आदेश है कि हमें जो भी प्राप्त हो, हम उसे बांटकर समान रूप से भोगें।"

श्रीकृष्ण ने राजा द्रुपद को समझाया- “राजन! जैसा प्रारब्ध ने निश्चित किया है, यह उसी के अनुसार हो रहा है। द्रोपदी ने अपने पूर्व जन्म में महादेव से वरदान मांगा था, यह उसी वरदान का प्रतिफल है।"

द्रुपद ने श्रीकृष्ण से अधिक तर्क करना उचित नहीं समझा। दूसरे दिन पहले युधिष्ठिर से, उससे अगले दिन भीम से, फिर अर्जुन से और फिर एक-एक दिन छोड़कर नकुल व सहदेव से द्रोपदी का विधिवत् विवाह-संस्कार करा दिया गया।

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