गीता उपदेश | Geeta Updesh | Mahabharat

गीता का उपदेश

महाभारत के युद्ध में, पाण्डवों और कौरवों की सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने खड़ी थीं। उस समय की युद्ध नीति आज की तरह नहीं होती थी। युद्ध करने से पूर्व दोनों सेनाओं ने युद्ध के नियम बनाए थे।

Geeta Updesh | Mahabharat

उन नियमों के अनुसार प्रतिदिन सूर्यास्त के बाद युद्ध रोक दिया जाएगा और दोनों पक्ष के लोग आपस में मिल सकेंगे। युद्ध में समान बल वाले ही एक दूसरे से टकरा सकेंगे। अनुचित या अन्यायपूर्ण रीति से युद्ध नहीं किया जा सकेगा। युद्ध से पलायन करने वाले व्यक्ति पर प्रहार नहीं किया जाएगा। निहत्थे शत्रु पर भी प्रहार नहीं किया जाएगा। रथी, रथी से, हाथी सवार, हाथी सवार से, घुड़सवार, घुड़सवार से और पैदल, पैदल से युद्ध करेगा। दो योद्धा यदि आपस में युद्ध कर रहे हो तो कोई तीसरा बिना सूचना दिए उन पर शस्त्र नहीं चलाएगा। हथियार पहुंचाने वालों, अनुचरों, रणभेरी बजाने वालों, शंख फूंकने वालों, असावधान अथवा पीठ दिखाने वालों पर कोई प्रहार नहीं करेगा।

इस प्रकार उपयुक्त नियमों का वचनपूर्वक दोनों पक्ष अमल करेंगे, यह तय कर लिया गया था।

दोनों ओर की सेनाएं जब आमने-सामने आ डटीं, तब श्रीकृष्ण, अर्जुन का रथ लेकर सेना के अग्रभाग में आए। वहां अर्जुन ने कौरव सेना में अपने सामने अपने परिजनों को देखा तो उनका उत्साह टूट गया। उन्होंने अपना गांडीव रख दिया और रथ में मुंह लटकाकर बैठ गए। उन्होंने युद्ध करने से इंकार कर दिया- “नहीं वासुदेव! मैं राज्य के लिए अपने ही संबंधियों पर बाण नहीं चला सकता।

अर्जुन को हतोत्साहित होते देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया—“हे पार्थ! जिनका आत्मज्ञान नष्ट हो जाता है, जो अल्प बुद्धि हैं और जो अपने क्रूर कर्मों के द्वारा सबका अहित करते हैं, वे आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य, इस जगत के विनाश के लिए उत्पन्न होते हैं। ऐसे लोगों को नष्ट करना पाप नहीं है। यहां कौन अपना है और कौन अपना नहीं है, इसे तू भूल जा। जिस प्रकार यह जीव इस देह में क्रम से बचपन, कौमार्य, यौवन और वृद्धावस्था को प्राप्त करता है, उसी प्रकार मृत्यु आने पर यह जीव दूसरी देह प्राप्त करता है। आत्मा न तो किसी शस्त्र से खंडित होती है, न अग्नि से जलाई जा सकती है, न इसे जल से भिगोया जा सकता है, न वायु से सुखाया जा सकता है।"

हे पार्थ! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब मैं अवतार लेता हूं। देश, काल के अनुसार अनेक दिव्य रूप धारण करने पर भी मेरे सभी स्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के हैं। जब भी कोई मृत्यु को प्राप्त होता है, मैं ही मरता हूं और जब भी कोई जन्म लेता है, मैं ही जन्म लेता हूं। यह प्राप्त देह एक रथ के समान है और पांच इंद्रियां- जिव्हा, नेत्र, कान, नाक और त्वचा रथ में जुते घोड़ों के समान हैं तथा ये पांचों घोड़े मन रूपी लगाम से नियंत्रित होते हैं।

मनुष्य की बुद्धि इस रथ की सारथि है और जीवात्मा इस शरीर रूपी सत्वगुण, रथ में बैठा हुआ यात्री है। इस प्रकार यह यात्री, मन तथा इंद्रियों के सहयोग से ही सुख-दुख का अनुभव करता है, परंतु मोह में पड़ा जीव, जीवन के रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होने वाले भावों में ही लिप्त रहता है और इन गुणों में मोहित होकर संसार से परे मेरे अविनाशी स्वरूप को नहीं पहचान पाता।" इतना कहकर श्रीकृष्ण ने अपना विराट विश्वरूप अर्जुन को दिखाया।

श्रीकृष्ण ने कहा– "हे पार्थ! तू मेरा सखा है, मेरा भक्त है। तू किसी को मारने वाला नहीं है। मैं ही मारता हूं और मैं ही हर बार मरता हूं। प्रकृति का यह नियम अनंतकाल से चला आ रहा है। जो मरता है, वह फिर से जन्म लेता है, अतः तू इस संताप को छोड़ और कर्म कर। कर्म के फल की तू चिंता मत कर। मेरी ओर देख, मैं ही अजन्मा तथा अविनाशी हूं। मैं ही समस्त जीवों का स्वामी हूं। मैं ही प्रत्येक युग में अपने आदि दिव्य स्वरूप को सभी जीवों में प्रकट करता हूं। यह संपूर्ण जगत मेरे अधीन है।

यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता है और मेरी ही इच्छा से विनष्ट होता है। मैं ही समस्त सृष्टि का आदि, मध्य और अंत हूं। यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध से विमुख होते हो तो तुम कुमार्ग पर जाओगे। तुम्हें अपने स्वभाववश युद्ध करना चाहिए और अधर्म का विनाश करना चाहिए।"

श्रीकृष्ण पुनः अपने प्रकृत रूप में आ गए, तब अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा— "हे कृष्ण! मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुगृह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई। अब मैं संशयरहित होकर आपके आदेशानुसार युद्ध करने के लिए उद्यत हूं।"

अर्जुन ने फिर से अपना गांडीव उठा लिया और उससे टंकार करके शत्रु सेना के हृदयों को कंपित कर दिया। उसी समय निहत्थे युधिष्ठिर ने रणभूमि में आगे बढ़कर कौरव सेना की ओर चलना शुरू किया तो सभी चौंक पड़े। श्रीकृष्ण उन्हें इस प्रकार जाते देखकर मुस्कराए और अर्जुन से बोले "चिंता मत करो धनंजय! युधिष्ठिर, पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और कृपाचार्य का आशीर्वाद लेने गए हैं। उनके लौटते ही युद्ध प्रारंभ होगा।"

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