जयद्रथ वध | Jayadratha Vadh | Mahabharat
जयद्रथ वध
जयद्रथ सिंधु देश के राजा वृद्धक्षत्र का पुत्र था। उसके जन्म पर भविष्यवाणी हुई थी कि यह बालक बड़ा वीर और यशस्वी होगा। इसकी मृत्यु एक श्रेष्ठ क्षत्रिय के हाथों होगी।
राजा वृद्धक्षत्र बड़ा तपस्वी था। उसने तत्काल शाप दिया कि जो भी मेरे पुत्र का सिर काटेगा और उसे जमीन पर गिराएगा, उसके सिर के तत्काल सौ टुकड़े हो जाएंगे।
युवा होने पर राजा वृद्धक्षत्र अपने पुत्र को राज्य देकर तपस्या करने ‘स्यमंत पंचक' नामक स्थान पर पहुंचे और आश्रम बनाकर तपस्या करने लगे। यह 'स्यमंत पंचक' स्थान ही कुरुक्षेत्र कहलाया।
अर्जुन ने जयद्रथ को सूर्य छिपने से पहले मारने का प्रण किया था। यह युद्ध का चौदहवां दिन था।
अर्जुन जयद्रथ की तलाश में निकल पड़ा। उस दिन द्रोणाचार्य ने विकट व्यूह रचना की थी। इस व्यूह के मध्य में जयद्रथ, कौरव वीरों भूरिश्रवा, कर्ण, अश्वत्थामा, शल्य, वृषसेन आदि कितने ही महारथियों की सुरक्षा में रखा गया था।
अर्जुन अपने गांडीव से भयानक बाण वर्षा करके कौरवों के असंख्य वीरों को यमलोक पहुंचाता हुआ उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां जयद्रथ अपनी सेना से घिरा खड़ा था। भीम, अर्जुन के रथ के पीछे था। अर्जुन के पहुंचते ही घमासान युद्ध छिड़ गया।
धीरे-धीरे सूर्य अस्ताचल की ओर जाने लगा। कृष्ण को चिंता हुई कि सूर्यास्त से पहले यदि जयद्रथ नहीं मारा गया तो अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर पाने के कारण आत्मघात कर लेगा।
श्रीकृष्ण ने तत्काल माया रचकर सूर्य को छिपा दिया। सभी ने समझा कि सूर्यास्त हो गया।
जयद्रथ हंसता हुआ अपने सुरक्षा कवच से बाहर निकल आया और अर्जुन को चिढ़ाने लगा, तभी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से धीरे से कहा– “पार्थ! सूर्यास्त अभी नहीं हुआ है। तुम जयद्रथ का मस्तक इस तरह से काटो कि इसका सिर इसके पिता वृद्धक्षत्र की गोद में जा गिरे।"
श्रीकृष्ण का संकेत पाते ही अर्जुन ने एक ही बाण से जयद्रथ का सिर काट डाला। सिर हवा में उड़ता हुआ तपस्यारत वृद्धक्षत्र की गोद में जा पड़ा। वृद्धक्षत्र घबराकर जैसे ही उठे, जयद्रथ का सिर धरती पर जा गिरा। धरती पर उसके गिरते ही वृद्धक्षत्र के सिर के सौ टुकड़े हो गए। दोनों पिता-पुत्र तत्काल यमलोक को सिधार गए।
तभी आकाश में सूर्य फिर से चमकने लगा। कौरवों और पाण्डवों में भयानक युद्ध छिड़ गया। चौदहवें दिन का युद्ध सूर्यास्त तक ही नहीं चला, बल्कि मशालों की रोशनी में रात्रि में भी चलता रहा। युद्ध मर्यादा की सारी सीमाएं टूट गईं। धर्म-अधर्म की चिंता किए बिना युद्ध होता रहा। कौरव सेना के अनेक वीर उस दिन मारे गए, उनमें भूरिश्रवा भी एक था।