रंगभूमि में कर्ण और अर्जुन | Karna and Arjun in Rangbhoomi | Mahabharat
रंगभूमि
जब आचार्य द्रोण ने राजकुमारों को शस्त्र विद्या में पारंगत कर दिया, तब उन्होंने कृपाचार्य, भीष्म, व्यास, विदुर और धृतराष्ट्र से कहा– “महाराज! सभी राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो चुकी है। अब हस्तिनापुर की जनता के सामने उनके अस्त्र-शस्त्र कौशल को प्रदर्शित करने का प्रबंध किया जाए।”
“आचार्य! आपका सुझाव अति सुंदर है।” महाराज धृतराष्ट्र ने प्रसन्न होकर कहा– “हम यथा शीघ्र इसका प्रबंध कराएंगे।"
आचार्य द्रोण और विदुर पर इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे स्थान और समय का चुनाव करें। आचार्य द्रोण ने एक समतल मैदान में एक विशाल रंगभूमि तैयार कराई। सारे नगरवासियों को निश्चित तिथि पर रंगभूमि में राजकुमारों के अस्त्र-शस्त्र कौशल को देखने का निमंत्रण दिया गया।
जिस दिन यह समारोह रखा गया, उस दिन पूरा राजभवन और हस्तिनापुर नगर की प्रजा वहां उमड़ पड़ी। सभी राजकुमारों ने अपने-अपने करतब दिखलाए। भाला फेंकना, तलवारबाजी, नेजा संचालन, गदा युद्ध, धनुष-विद्या, अश्वारोहण, रथ दौड़, मल्ल युद्ध आदि तरह-तरह के करतब दिखलाए गए। भीम ने जहां अपने गदा-युद्ध से दुर्योधन से टक्कर ली, वहां धनुर्विद्या के चमत्कारी प्रदर्शन में अर्जुन ने सबसे बाजी जीत ली। उसका अद्भुत कौशल देखकर सभी दंग रह गए।
अभी अर्जुन अपना प्रदर्शन दिखाकर लोगों की वाह-वाही लूटकर हटे ही थे कि रंगभूमि के द्वार से अश्व दौड़ाता हुआ एक सुदर्शन युवक रंगभूमि में आया और अश्व से उतरकर सारे राजवंश को संबोधित करके ऊंची आवाज में बोला— “अर्जुन ने जो-जो करतब यहां दिखाए हैं, उन्हें मैं भी दिखा सकता हूं। मैं अर्जुन को चुनौती देता हूं कि वह मेरे समान धनुर्विद्या के करतब करके दिखाए।”
अर्जुन को ललकारने का साहस किसने किया? सभी उस सुदर्शन युवक की ओर देखने लगे। वह कर्ण था। उसे देखते ही दुर्योधन की बाछें खिल गईं। दुर्योधन तत्काल उठकर कर्ण के पास आया और बोला— “मित्र कर्ण! आज तुमने मेरी लाज रख ली।”
वह तत्काल अर्जुन की ओर देखकर बोला— “क्यों अर्जुन! मेरे मित्र कर्ण से प्रतिस्पर्द्धा करोगे?”
अर्जुन कोई उत्तर देता, उससे पहले ही कुलगुरु कृपाचार्य उठ खड़े हुए और बोले "राजकुमार दुर्योधन! क्षत्रियों की सभा में जो बिना बुलाए आते हैं, वे निंदा के योग्य होते हैं। अपने मित्र से कहो कि वह पहले अपना परिचय दे। महाराज पाण्डु के पुत्र अर्जुन इसके साथ युद्ध करने के लिए तैयार हैं। इससे कहो कि यह बताए कि यह किस राजवंश का कुलदीपक है। इसके कुल का परिचय पाए बिना राजकुमार अर्जुन इससे युद्ध नहीं करेंगे, क्योंकि युद्ध बराबर वालों में होता है।"
कृपाचार्य की बात सुनकर कर्ण का सिर लज्जा से झुक गया, तभी दुर्योधन ने कहा– “यह अन्याय है। वीर शिरोमणि कर्ण का अपमान है। यह क्यों नहीं कहते कि अर्जुन कर्ण से भयभीत हो गया है।"
"नहीं! अर्जुन इस वसुंधरा में किसी से भयभीत नहीं है।" अर्जुन जोर से बोला- “परंतु आचार्य का आदेश मेरे लिए सर्वोपरि है।”
“आचार्य! यदि बराबरी की बात है तो मैं इसी समय कर्ण को अंगदेश का राजा बनाता हूं।” दुर्योधन ने उसी ऊंचे स्वर में कहा और तत्काल आवश्यक सामग्री मंगाकर कर्ण का राजतिलक कर दिया। दुर्योधन के सभी भाइयों ने जोरदार जयघोष किया— 'महाराज कर्ण की जय...अंगराज कर्ण की जय।
कर्ण भाव-विह्वल हो गया। उसने दुर्योधन को अपने सीने से लगा लिया और कहा— “मित्र! मेरा यह जीवन तुम्हारा ऋणी हो गया। आज के बाद तुम्हारे लिए मैं अपने प्राण भी न्योछावर कर सकता हूं।"
तभी राज वंश की स्त्रियों के बैठने की जगह खलबली-सी मच गई। किसी ने जोर से चिल्लाकर कहा- 'राजमाता कुंती मूर्छित हो गई हैं।
वास्तव में कुंती ने कर्ण को उसके कवच-कुण्डलों से पहचान लिया था। किसी अज्ञात भय के कारण उन्हें मूर्छा आ गई थी। विदुर ने तत्काल ही उन्हें परिचारिकाओं के द्वारा विश्राम कक्ष में भिजवा दिया। इस सारे कार्य से निबटते-निबटते सांझ हो गई। सूर्य अस्ताचल की ओर जाने लगा।
तभी कृपाचार्य ने खड़े होकर कहा- “आज सभा यहीं समाप्त की जाती है।"
उसी समय सबने देखा कि एक बूढ़ा व्यक्ति तेजी से चलता हुआ कर्ण के पास आया। वह अधिरथ था। सभी ने उसे पहचाना। कर्ण ने आगे बढ़कर उसके चरण स्पर्श किए और बोला – “आप यहां क्यों आए पिताश्री?" उसकी बात सुनकर लोग चिल्लाए– 'अरे! यह तो सूत पुत्र है।'