समन्वय का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र, आवश्यकता एवं महत्त्व | Meaning, Definition, Scope, Need and Importance of Coordination

समन्वय का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Coordination)

प्रबन्धन में समन्वय से अभिप्राय है कि प्रवन्धन की विभिन्न क्रियाओं में सामजस्य स्थापित करना, फिर ये क्रियाएँ चाहे मानवीय सम्बन्धों से सम्बन्धित हो अथवा भौतिक सामन्त्रों से प्रबन्धन की प्रक्रिया में विभिन्न व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों और क्रियाओं में समन्वय अर्थात् एकसूत्रता होना आवश्यक है। क्योंकि संस्था के लक्ष्यों को प्राप्ति और भौतिक, आर्थिक तथा सामाजिक शक्तियों का सदुपयोग समन्वय से ही सम्भव है; अतः विभिन्न क्रियाओं, सम्बन्धों और प्रयत्नों के मध्य उचित तालमेल बैठाना, मिल-जुलकर कार्य करना, एकसूत्र में होकर कार्य करना ही समन्वय है, सामंजस्य है, समायोजन है। समन्वय को विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है-

समन्वय का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र, आवश्यकता एवं महत्त्व

1. मूने तथा रेले के अनुसार:- "समन्वय किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति हेतु क्रियाओं में एकता लाने के सामूहिक प्रयत्नों का व्यवस्थापूर्ण प्रबन्ध है।"

2. कुण्टज और ओ डोनेल के अनुसार:- "समन्वय सन का एक प्रकार्य मात्र ही नहीं अपितु यह तो प्रशासन का सार है।"

3. मैक फारलैण्ड के अनुसार:-"समन्वय एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक कार्यकारी अपने अधीनस्थों में सामूहिक प्रयास का एक सुव्यवस्थित स्वरूप विकसित करता है तथा सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति ह क्रिया सम्बन्धी एकता स्थापित करता है।"

समन्वय एक ऐसी प्रक्रिया है, प्रयास है और क्रिया है जिससे संगठन में सन्तुलन और टीम में एकता बनाए रखने का प्रयास किया जाता है और यह प्रयास किया जाता है कि सामूहिक प्रयास का एक सुव्यवस्थित स्वरूप विकसित हो सके।

विद्यालय शिक्षा में समन्वय का क्षेत्र (Scope of Coordination in School Education)

समन्वय का क्षेत्र यद्यपि अत्यन्त व्यापक है और विस्तृत है। समन्वय को अध्ययन की दृष्टि से निम्नलिखित तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है-

1. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं में समन्वय:- विद्यालय में बालक के विकास को ध्यान में रखते हुए विविध पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाता है। इन क्रियाओं में खेलकूद, साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्काउट गाइडिंग, शैक्षिक पर्यटन, धार्मिक व राष्ट्रीय पर्व आदि को सम्मिलित किया जाता है। इसके लिए शिक्षकों की रुचि, उनकी योग्यता और क्षमता को ध्यान में रखकर कार्यभार दिया जाना चाहिए। शिक्षक को भी सभी छात्रों को समान महत्त्व देना चाहिए। किसी भी प्रकार के पक्षपात से विरोधी भावना जाग्रत होगी जिससे समन्वय स्थापना में कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। अतः समय-समय पर प्रधानाध्यापक को पाठ्य सहगामी क्रियाओं का पर्यवेक्षण करना चाहिए और प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपनाकर समन्वय को मजबूत बनाने का प्रयास करना चाहिए।

2. पाठ्यक्रम सम्बन्धी क्रियाओं में समन्वय:- इसके अन्तर्गत पाठ्यक्रम से सम्बन्धित शैक्षिक क्रियाओं-शिक्षण और परीक्षण को सम्मिलित किया जाता है। शिक्षण में समय तालिका इस प्रकार बनाई जाती है ताकि शिक्षकों को आपस में कोई कठिनाई न हो। शिक्षक की अनुपस्थिति में कार्यभार अन्य शिक्षक को प्रदान किया जाना चाहिए। परीक्षण सम्बन्धी क्रियाओं में प्रधानाध्यापक को वरिष्ठता सूची के अनुसार कार्यभार दिया जाना चाहिए। इससे शिक्षकों में आपस में समन्वय बना रहेगा। परीक्षा में कक्षा निरीक्षकों को कार्य के विभाजन में समानता रखनी चाहिए अर्थात् कार्य विभाजन में शिक्षकों की वरिष्ठता, योग्यता और कार्य-कुशलता को ध्यान में रखना चाहिए।

3. प्रशासनिक क्रियाओं में समन्वय:- प्रबन्धन में समन्वय की दृष्टि से प्रधानाध्यापक को विद्यालय को सुचारू रूप से संचालन करने में प्रबन्ध के विविध पक्षों से समन्वय की आवश्यकता होती है। प्रधानाध्यापक को प्रबन्ध समिति की बैठकों, निर्णयों और आदेशों की अनुपालना में समन्वय की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त जिला स्तर पर राज्य स्तर पर शिक्षा विभाग से तथा शिक्षा के विविध उच्च अधिकारियों से समन्वय स्थापित करना होता है। शिक्षा विभाग के नियम, अधिनियम, अध्यादेश की अनुपालना और वित्तीय अनुदान तथा मान्यता के लिए अधिकारियों से सम्पर्क करना होता है। अतः विद्यालय के विकास और सही रूप में संचालन के लिए प्रधानाध्यापक उच्च अधिकारियों से समन्वय स्थापित करके शैक्षिक और सहायक क्रियाओं को गतिशील रख सकता है।

अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्रधानाध्यापक को एक प्रशासक की भूमिका में विद्यालय की क्रियाओं में प्रबन्ध समिति की क्रियाओं में, समुदाय की क्रियाओं में और शिक्षा विभाग तथा अन्य अधिकारी वर्ग को क्रियाओं में समन्वय करना होगा और उन क्रियाओं पर नियन्त्रण भी रखना होगा। समन्वय पर नियन्त्रण रखने से विद्यालय समय-सारणी को भली-भाँति सम्पादित किया जा सकेगा, विद्यालय के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकेगी और विद्यालय का विकास भी सम्भव हो सकेगा।

समन्वय के कारक (Factors of Coordination)

समन्वय सम्बन्धी कारको को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। समन्वय के तीन कारक निम्नलिखित हैं-

1. समन्वय के साधन:- विद्यालय की क्रियाओं में समन्चय का मुख्य साधन विद्यालय की परम्पराएँ, नियमावली तथा अध्यादेश होते हैं। विद्यालय शिक्षा की क्रियाओं में समन्वय के लिए प्राचार्य को परम्पराओं, नियमो तथा अध्यादेशों का अनुपालन करना होता है अथवा उनके आधार पर समन्वय किया जा सकता है। प्राचार्य को समन्वय पर नियन्त्रण करने में नियमों, परम्पराओं एवं अध्यादेशों की आवश्यकता होती है।

2. विद्यालय का वातावरण एवं समन्वय की क्षमता:- विद्यालय में प्राचार्य एक प्रशासक के रूप में कार्य करता है। इसलिए विद्यालयों को क्रियाओं में समन्वय के लिए वह अपने अधिकारों का प्रयोग करता है कि यह निर्णय यह मैंने विद्यालय के हित में दिया है और विद्यालय के हित में ऐसा ही करना होगा। यहाँ विद्यालयों की समन्वय नहीं हो पाता उस परिस्थिति में प्राचार्य अपने अधिकारों का प्रयोग करता है और अधिकार से समन्वय करने का प्रयास करता है।

3. विद्यालय के कार्यक्रमों से सम्बन्धित पक्ष:- जैसे- शिक्षक, कर्मचारी, छात्र, अभिभावक तथा पाठ्यक्रम विद्यालय शिक्षा में शिक्षक, छात्रों, अभिभावको तथा पाठ्यक्रम सभी क्रियाओं में समन्वय की आवश्यकता होती है।

समन्वय की अवस्थाएँ (States of Coordination)

प्रबन्धन के मुख्य पाँच अवस्थाएं अथवा प्रक्रियाएं होती है। इन्हीं पाँची प्रक्रियाओं की अवस्थानुसार समन्वय की आवश्यकता होती है तभी प्रबन्धन सफल एवं प्रभावशाली होता है। समन्वय की पाँच अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. नियोजन की अवस्था में समन्वय,
  2. व्यवस्था अथवा संगठन की अवस्था में समन्वय,
  3. प्रशासन की अवस्था में समन्वय,
  4. पर्यवेक्षण की अवस्था में समन्वय तथा
  5. नियन्त्रण या मूल्यांकन की अवस्था में समन्वय।

इन समन्वय की अवस्थाओं का विवरण निम्नलिखित पंक्तियों में दिया गया है।

1. नियोजन की अवस्था में समन्वय:- प्रबन्धन को आरम्भिक प्रक्रिया नियोजन की होती है। इसके अन्तर्गत संस्था की सभी क्रियाओं का उद्देश्य की दृष्टि से निर्धारण करना होता है। नियोजन को प्रक्रिया, सूझ-बूझ, अनुभवों तथा तार्किक शक्तियों पर निर्भर होती है। इसमें भूमिकाओं, उत्तरदायित्वों तथा क्रियाओं का प्रारूप विकसित किया जाता है। समन्वय की आवश्यकता क्रियाओं के सम्पादन अथवा क्रियान्वयन मे होती है। इसलिए भूमिका क्रियाओं, सम्बन्धों तथा उत्तरदायित्वों के प्रारूप का नियोजन करते समय उनमें समन्वय की प्रक्रिया की महत्त्व दिया जाए। समन्वय को ध्यान में रखने में व्यवस्था की प्रक्रिया तथा प्रशासन में प्राचार्य को कठिनाई नहीं होगी।

2. व्यवस्था अथवा संगठन की अवस्था में समन्वय:- किसी प्रबन्धन के संगठन को बनाये रखने में समन्वय को विशेष महत्व होता है। व्यवस्था को सम्पादित करने में क्रियाओं में समन्वय की आवश्यकता होती है। समन्वय न होने पर व्यवस्था खण्डित होने की अधिक सम्भावना रहती है। व्यवस्था की प्रक्रिया को प्रभावशीलता समन्वय पर निर्भर होती है।

3. प्रशासन की प्रक्रिया की अवस्था में समन्वय:- प्रशासन की अवस्था में सभी क्रियाओं का सम्पादन किया जाता है। नियोजन तथा व्यवस्थित क्रियाओं का व्यावहारिक रूप में क्रियान्वयन प्राचार्य द्वारा किया जाता है। इस अवस्था में समन्वय के अभाव में कठिनाइयाँ तथा समस्याएँ होती है। शिक्षकों में समायोजन नहीं हो पाता है। इस अवस्था में क्रियाओं तथा अनुभवों से ही अशुद्ध जान होता है। यहां तक प्रबन्धन के प्रारूप में भी प्राचार्य परिवर्तन करता है।

4. पर्यवेक्षण की प्रक्रिया की अवस्था में समन्वय:- आधुनिक समय में पर्यवेक्षण का प्रत्यय बदन चुका है। पर्यवेक्षण का अर्थ है क्रियाओं का सुधार एवं विकास करना और प्राचार्य द्वारा शिक्षकों तक कर्मचारियों को प्रोत्साहित करना तथा सुधार हेतु सुझाव देना। पर्यवेक्षण में प्राचार्य को नेतृत्व भूमिका का निर्वहन करना होता है। पर्यवेक्षण के माध्यम से क्रियाओं के समन्वय का अवलोकन करता है। समन्वय क सूक्ष्मताओं का बोध प्राचार्य को होता है और समन्वय की क्रियाओं को सशक्त बनाने का प्रयास करता है।

5. नियन्त्रण की अवस्था में समन्वय:- नियन्त्रण की प्रक्रिया में परीक्षण कार्यों को सम्मलित किया जाता है। परीक्षण प्रणाली की विविध क्रियाओं में समन्वय की विशेष आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त परोक्षण का शिक्षण के साथ समन्चय होना भी विशेष महत्त्व रखता है। जिस प्रकार विद्यालय में शिक्षण किय जाए उसी प्रकार की परीक्षा होनी चाहिए। परीक्षण शिक्षण पर आधारित होना चाहिए। जब कभी ऐसा नहीं होता, तब छात्र परीक्षाभाव में समस्या उत्पन्न करते हैं और उनका नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है। इस प्रकार अबन्धन में समन्वय की क्रिया समस्याओं से बचाव करती है और कठिनाइयों एक समस्याओं का समाधान तथा सुधार करती है।

समन्वय की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Coordination)

समन्वय का प्रशासन में वही महत्त्व या भूमिका है, जो कि किसी वाहन में पहियों की एकरूपता का तथा शरीर में व्यवस्थित अंगों का होता है। यदि प्रशासन के विभिन्न विभागों तथा कर्मचारियो की क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित न कर पाये तो प्रशासन के पूर्व निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव भी है। समन्वय की आवश्यकता एवं महत्त्व को अनुभव करते हुए कुण्ट्ज तथा ओ 'डोनेल ने समन्वय को प्रबन्ध का सार कहा है। हेनरी फेयोल तथा बीच ने इसे प्रशासकीय प्रबन्ध का एक पृथक और आधारभूत कार्य बताया है। कुछ आधुनिक विद्वानों ने इसे प्रबन्ध के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया है तथा कहा है कि समन्वय प्रबन्ध की सम्पूर्ण प्रक्रिया से सम्बद्ध है कि उसे एक पृथक् कार्य के रूप में सोचना भी असम्भव है। समन्वय की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्नलिखित हैं-

1. प्रयासों में एकरूपता लाने हेतु:- विद्यालय के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किए गए विभिन्न प्रयासों में एकरूपता लाने के लिए किए गए प्रयासों में समन्वय होना जरूरी है। बिना समन्वय के प्रयासों में एकरूपता नहीं लाई जा सकती है।

2. सामूहिक शक्ति उत्पन्न करने हेतु:- सामूहिक प्रयास अधिक सशक्त एवं प्रभावपूर्ण होते हैं। समन्वय वह कला है जिसके द्वारा व्यक्तिगत प्रयास को सामूहिक बनाकर बिखरी हुई शक्ति को समेटकर अधिक उपलब्धता हासिल करने के प्रयास किए जाते हैं। इस प्रकार सामूहिक शक्ति उत्पन्न करने के लिए उपक्रम के कर्मचारियों के विभिन्न प्रयासों में समन्वय होना आवश्यक है।

3. मानवीय सम्बन्धों में मधुरता हेतु:- अनेक व्यक्तियों को एकत्रित करना तथा उनका संगठन करना आसान है परन्तु उनके सम्बन्धों को मधुर बनाये रखना कठिन है। समन्वय प्रक्रिया के द्वारा मानवीय सम्बन्धों की काफी सीमा तक मधुर बनाये रखा जा सकता है। समन्वय मानवीय सम्बन्धों को मधुर बनाये रखने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

4. कार्यक्षमता में सन्तुलन लाने हेतु:- उपक्रम के सभी कर्मचारियों की कार्यक्षमता एवं योग्यताएँ समान नहीं होती। कर्मचारियों की कार्यक्षमता में समानता लाने के लिए समन्वय की प्रक्रिया को अपनाया जाता है। समन्वय क्रिया विभिन्न योग्यताओं-क्षमताओं में ऐसा सन्तुलन स्थापित करती है कि निर्बल तथा सवल और मन्दबुद्धि कुशल- अकुशल, सुस्त व तेज सभी प्रकार के कर्मचारियों एवं विभागों को अपनी क्षमतानुसार योगदान देने का अवसर प्राप्त हो सके।

5. नियोजन एवं नियन्त्रण की सफलता हेतु:- नियोजन एवं नियन्त्रण की सफलता के लिए समन्वय बहुत आवश्यक है। बिना समन्वय के नियोजन एवं नियन्त्रण एक कल्पना मात्र है। विना समन्वय के नियन्त्रण अप्रभावी रहा है। संगठन में चुस्ती लाने के लिए समन्वय जरूरी है।

6. मनोबल में बुद्धि तथा कर्मचारियों के विकास हेतु:- समन्वय के द्वारा कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि होती है तथा उनका दैनिक विकास होता है। कर्मचारी रुचि एवं लगन से कार्य करते हैं जिससे उपविद्यालय की आवश्यकता तथा कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती हैं।

7. प्रबन्धकीय कार्यों के निष्पादन हेतु:- समन्वय के अभाव में प्रशासकीय कार्यों का उचित एवं सही तरीके से निष्पादन नहीं हो सकता है। प्रशासन का एक भी कार्य ऐसा नहीं है जिसके निष्पादन में समन्वय सहायक न हो। समन्वय के अभाव में नियोजन, संगठन, नियन्त्रण आदि सभी क्रियाएँ व्यर्थ है।

8. निर्देशन को प्रभावपूर्णता हेतु:- निर्देशन की प्रभावशीलता के लिए समन्वय का होना जरूरी है। समन्वय का अभाव, पारस्परिक सम्बन्धों शिथिलता तथा घर्षण को जन्म देता है, जो निर्देशन की प्रभावशीलता को कम कर देता है।

9. विशिष्टीकरण की आधारशिला हेतु:- वर्तमान समय में हम विशिष्टीकरण का जो स्वरूप देख रहे हैं, उनकी आधारशिला समन्वय ही है, क्योंकि यदि विभिन्न विशिष्टीकरण क्रियाओं तथा व्यक्तियों में समन्वय नहीं रहा तो कार्य पूर्ण होना असम्भव है।

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