शैक्षिक प्रबंधन का अर्थ, क्षेत्र, महत्व एवं सिद्धान्त | Meaning, Scope, Importance and Principles of Educational Management in hindi

शैक्षिक प्रबंधन का अर्थ (Meaning of Educational Management)

शैक्षिक प्रबन्ध या शिक्षा में प्रबन्ध वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित की जाती है जिनमें मानवीय स्रोत अपनी योग्यता तथा क्षमता का पूरा-पूरा प्रदर्शन कर सके।

Meaning, Scope, Importance and Principles of Educational Management in hindi

शिक्षा में प्रबन्ध शिक्षा का गतिशील अंग है। शैक्षिक दर्शन शिक्षा के लक्ष्य इंगित करता है। शैक्षिक प्रेरित मनोविज्ञान अध्ययन के सिद्धान्त स्थिर करता है। शैक्षिक प्रबन्ध सम्बन्धित बातों को कार्यरूप में परिणित करता है।

शैक्षिक प्रबन्ध की परिभाषायें (Definitions of Educational Management)

शैक्षिक प्रबन्ध को विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार परिभाषित किया है-

1. हेनीर फेयोल के अनुसार- "प्रबन्ध से अर्थ पूर्वानुमान लगाना, योजना बनाना, संगठन करना, निर्देशन करना, समन्वय करना तथा नियन्त्रण करना है।"

2. प्रो० एलन के अनुसार- "प्रबन्ध वह कार्य है जो किसी प्रबन्धक को करना पड़ता है।"

3. विलियम एच० न्यूमैन के अनुसार- "किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी व्यक्ति समूह के प्रयत्नों का मार्गदर्शन, नेतृत्व एवं नियंत्रण ही प्रबन्ध कहलाता है।"

4. एफ० डब्ल्यू० टेलर के अनुसार- "प्रबन्ध यह जानने की कला है की आप क्या करना चाहते हैं और इकसे पश्चात् यह देखना कि आप इसे सर्वोत्तम एवं मितव्ययितापूर्ण ढंग से करते हैं।"

5. ई० एफ० एल० ब्रेक के अनुसार- "प्रबन्ध से तात्पर्य किसी व्यावसायिक एवं शैक्षिक संस्थाओं की क्रियाओं के नियोजन एवं निगमन से है।"

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शैक्षिक प्रबन्ध एक ऐसी कला और सुव्यवस्थित वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो किसी संस्था के पूर्व निर्धारण उद्देश्यों की प्राप्ति में नेतृत्व, सहायता तथा मार्गदर्शन करती है।

शिक्षा में प्रबंधन का महत्व (Importance of Management in Education)

शिक्षा में प्रबन्धन के महत्व का अध्ययन, अग्रलिखित तथ्यों के आधार पर किया जा सकता है-

  1. शिक्षा की नीतियों और योजनाओं को निर्धारित तथा निर्मित करने क्रियान्वित करने तथा उनका मूल्यांकन करने के लिए।
  2. शिक्षा में स्थायित्व और निश्चितता लाने के लिए।
  3. शिक्षा के कार्यों में कुशलता, सुगमता तथा सरलता उत्पन्न करने के लिए।
  4. शिक्षा पर नियंत्रण रखने तथा पर्यवेक्षण करने के लिए।
  5. छात्र के व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास करने के लिए।
  6. छात्रों तथा शिक्षकों दोनों की उपलब्धियों में वृद्धि करने के लिए।
  7. शिक्षा में व्याप्त अपव्यय एवं अवरोधन को दूर करने के लिए।
  8. मानवीय तथा भौतिक साधनों को समन्वयात्मक रूप में क्रियाशील बनाने के लिए।
  9. शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया को व्यक्ति और समाज दोनों के हित में संचालित करने के लिए।
  10. विद्यालय का वातावरण मनोवैज्ञानिक बनाने और साधनो उपकरणों तथा आवश्यक सामग्री को उपलब्ध कराने के लिए।

शैक्षिक प्रबंधन के क्षेत्र (Scope of Educational Management)

शैक्षिक प्रबन्ध के क्षेत्र को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

1. नियोजन:- केवल प्रबन्ध ही नहीं बल्कि किसी भी कार्य को प्रारम्भ करते समय उसका नियोजन किया जाता है। नियोजन के अन्तर्गत कार्य से सम्बन्धित योजना विभिन्न स्तर पर विभिन्न पक्षों के बारे में बनाई जाती है। नियोजन में शिक्षा से सम्बन्धित नियोजन भी किया जाता है। किसी भी कार्य को बिना नियोजन प्रारम्भ करने में उसको सफलता संदिग्ध ही बनी रहती है इसलिये शैक्षिक प्रबन्ध में भी पहला एक महत्वपूर्ण क्षेत्र इससे सम्बन्धित नियोजन ही है।

2. लक्ष्यों का निर्धारण:- नियोजन के माध्यम से हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं, इसके उद्देश्य या लक्ष्यों का निर्धारण किया जाता है। इन लक्ष्यों के अनुरूप ही नियोजन किया जाता है। निर्धारित इन लक्ष्यों के अनुरूप ही नियोजन किया जाता है निर्धारित साधनों में हम क्या प्राप्त कर सकते है।

3. मानव शक्ति नियोजन:- शैक्षिक प्रबन्ध में मानव शक्ति का नियोजन किया जाता है। इसमें हम योजना एवं उद्देश्यों के अनुसार मानवीय शक्ति को भली प्रकार से मापते हैं अर्थात् जो कार्य हम करना चाह रहे हैं उसके लिये कितने मानवीय श्रम की आवश्यकता होगी और इस मानवीय श्रम को किस प्रकार लगाया जाये जिससे कि उद्देश्यों की पूर्ण प्राप्ति हो सकें।

4. शिक्षण संस्थाये:- शैक्षिक प्रबन्ध का कार्य शैक्षिक संस्थाओं के लिये ही किया जाता है क्योंकि शैक्षिक प्रबन्ध अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से ही प्राप्त कर सकती है। शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था कुशलता, क्षमता आदि से सम्बन्धित सारे कार्य इसके अन्तर्गत आते है। उसमें शिक्षण संस्थाओं का संगठनात्मक ढाँचा, उनका नियन्त्रण, निरीक्षण सभी आ जाता है।

5. प्रशिक्षण:- प्रशिक्षण भी प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है क्योंकि प्रशिक्षण के द्वारा ही मानव शक्ति अर्थात् शिक्षकों एवं शिक्षा से सम्बन्धित अधिकारियों को उद्देश्यों की प्राप्ति के अनुरूप तैयार किया जा सकता है। प्रशिक्षण के द्वारा ही उनको कौशल एवं तकनीक समझायी जाती है। अच्छे कौशल एवं तकनीक के द्वारा कम श्रम एवं कम समय में सफलतापूर्वक शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

6. नेतृत्व:- नेतृत्व शैक्षिक प्रबन्ध का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इसमें विद्यालय प्रमुख या विद्यालय नेतृत्व के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों में नवीनता के प्रति रूचि रखने वालों की भूमिका भी आती है। आज शिक्षा के क्षेत्र में अनेक अभिनव प्रयोग हो रहे है। अतः यह सारे अभिनव प्रयोग अच्छे नेतृत्व पर ही निर्भर करते हैं।

इस प्रकार उपरोक्त विन्दुओं के आधार पर स्पष्ट होता है कि शैक्षिक प्रबन्ध का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इसको सीमाओं में रखना इसके साथ न्याय नहीं होगा, क्योंकि आज शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व जिस तेजी के साथ बढ़ता चला जा रहा है उसी तेजी से शिक्षण संस्थाओं की आवश्यकता एवं महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है और इसके कारण शिक्षण संस्थाओं की संख्या और महत्व में भी वृद्धि होती जा रही है। अतः शैक्षिक प्रबन्ध को क्षेत्र सम्पूर्ण शिक्षा जगत से जुड़े हुये विभिन्न पहलू है।

शैक्षिक प्रबन्ध की मुख्य विशेषताएँ (Salient Features of Educational Management)

शैक्षिक प्रबन्ध की विशेषतायें मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-

1. नियोजन प्रबन्ध:- शैक्षिक प्रवन्ध की सबसे पहली और मुख्य विशेषता नियोजित प्रबन्ध से है। इसमें सारी प्रबन्ध व्यवस्था पूर्ण नियोजित होती है अर्थात सारे कार्य क्रमबद्ध तरीके एवं नियोजित तरीके से किये जाते है। यह शैक्षिक प्रबन्ध की ही नहीं बल्कि सभी प्रबन्धों की पहली एवं महत्वपूर्ण विशेषता है।

2. समन्वित दृष्टिकोण:- शैक्षिक प्रबन्ध की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता समन्चित दृष्टिकोण है। अन्य प्रबन्ध की तुलना में यह दृष्टिकोण ज्यादा समन्वित होता है क्योंकि इसमें प्रबन्ध की सारी व्यवस्था मानवीय हाती है, इसमें छात्र-छात्रायें, शिक्षकों आदि से सम्वन्धित व्यवस्थायें होती हैं। इसलिए शैक्षिक प्रबन्ध तभी अच्छा जो सकता है जब कि वह पूर्णतया मानवीय सम्बन्धों पर आधारित हो। शिक्षण संस्थाओं की प्रगति इन मानवीय एवं समन्वित दृष्टिकोण पर ही निर्भर करती है। इसके द्वारा ही शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति भली-भाँति सम्भव है।

3. अमूर्त:- शैक्षिक प्रबन्ध अमूर्त भी माना जाता है। इसका कारण यह है कि शैक्षिक प्रबन्ध में हमारे कार्यों की सफलता का ज्ञान बहुत समय बाद लगता है। अन्य प्रबन्धों में तो सफलता का पता कुछ समय बाद ही लग जाता है लेकिन शैक्षिक प्रबन्ध में वालकों को इतनी सफलता मिली, इसका ज्ञान काफी समय बाद चल पाता है। इसकी यह विशेषता मानी जाती है कि यह अमूर्त है।

4. उद्देश्यपूर्ण:- सभी प्रबन्धों की यह विशेषता होती है कि वह उद्देश्यपूर्ण हो। शैक्षिक प्रबन्ध को भी यह विशेषता है कि यह उद्देश्यपूर्ण है। शैक्षिक उद्देश्य की प्राप्ति ही शैक्षिक प्रवन्ध का मुख्य उद्देश्य होता है। इसके लिये यह आवश्यक है कि शैक्षिक प्रवन्ध का उद्देश्य शिक्षको, छात्रों एवं इससे जुड़े हुए अधिकारियों, अभिभावकों आदि सभी को इसका स्पष्ट ज्ञान हो।

5. व्यवसाय के रूप में:- शैक्षिक प्रबन्ध की एक विशेषता व्यवसाय के रूप में भी है। इससे तात्पर्य यह है कि शैक्षिक क्षेत्र में भी यह महसूस किया जा रहा है कि कुशल प्रबन्धक हो। आज शैक्षिक क्षेत्र बहुत विस्तृत एवं जटिल होता जा रहा है इसलिए शैक्षिक प्रबन्ध भी एक व्यवसाय के रूप में प्रतिष्ठित होता जा रहा है। इससे व्यावसायिक योग्यता एवं शैक्षिक ज्ञान दोनों की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

6. कला एवं विज्ञान:- शैक्षिक प्रबन्ध की एक विशेषता यह है कि इसको कला और विज्ञान दोनों ही माना गया है। कला इसलिए है क्योंकि इसको ठीक प्रकार में प्रस्तुत करना होता है, साथ ही मानवीय सम्बन्धों पर आधारित होने के कारण भी यह एक कला है। इसको विज्ञान इसलिए माना गया है क्योंकि शैक्षिक प्रबन्ध में भी वैज्ञानिक की तरह निष्पक्ष रहकर अध्ययन करता है। शैक्षिक प्रबन्ध में भी सारे निर्णय पूर्व धारणाओ एवं पूर्वाग्रहों से दूर रहकर प्रयोग, परीक्षण व अनुसंधान के आधार पर निर्णय किये जाते हैं।

7. सहयोग की भावना:- सभी प्रबन्धों की तरह ही शैक्षिक प्रबन्ध में भी सहयोग की भावना होना बहुत आवश्यक है। सहयोग की भावना होने पर प्रबन्ध के सभी व्यक्ति निजी हितों से ऊपर उठकर सामूहिक हितों पर अधिक जोर देते हैं और इसी पर प्रबन्ध की सफलता निर्भर करती है।

8. सामूहिकता:- शैक्षिक प्रबन्ध की यह अपनी अलग विशेषता होती है क्योंकि शैक्षिक प्रबन्ध में प्रधानाध्यापक, अध्यापक एवं छात्रों के साथ-साथ अभिभावकों एवं शिक्षा से जुड़े हुए उच्च अधिकारियों को भी सहयोग होता है। सब के सामूहिक योगदान पर ही शैक्षिक प्रबन्ध सफल सकता है। अगर कही भी सामूहिकता में कमी है तो फिर सफलता नहीं मिल सकती है इसीलिए विद्यालयों में अध्यापक अभिभावक परिषद बनाई जाती है और समय-समय पर अभिभावकों से सम्पर्क किया जाता है।

9. अनवरत् प्रक्रिया:- शैक्षिक प्रबन्ध की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह अनवरत रूप से चलती रहती है। इसमें योजना बनाने, निर्णय करने, संगठन करने, निर्देशन, समन्वय आदि के बारे में निरन्तर कार्य किये जाते है।

10. वैज्ञानिक दृष्टिकोण:- शैक्षिक प्रबन्ध में अन्य प्रबन्धों की तरह वैज्ञानिक दृष्टिकोण बहुत आवश्यक है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तात्पर्य यही है कि हम सभी निर्णय पूर्व धारणाओं से दूर रहकर करें। पूर्व धारणाओं के आधार पर किये गये निर्णय ठीक नहीं होते इसीलिए आज का युग विज्ञान का युग माना जाता है।

11. सभी स्तरों पर प्रबन्ध:- शैक्षिक प्रवन्ध की एक विशेषता यह है कि शैक्षिक प्रबन्ध सभी स्तरो पर होता है। विद्यालय में प्रधानाध्यापक, उप प्रधानध्यापक एवं दो पारी में चलने वाले विद्यालय में पारी प्रभारी प्रबन्ध में आते हैं, इसके अलावा जिला स्तर पर उप जिला शिक्षाधिकारी अतिरिक्त जिला शिक्षाधिकारी, जिला शिक्षाधिकारी आते हैं और इसके ऊपर सहायक निदेशक, उप निदेशक, संयुक्त निदेशक, अपर निदेशक, निदेशक, उप शिक्षा सचिव, विशिष्ट शिक्षा सचिव एवं शिक्षा सचिव आते है।

12. उपलब्ध साधनों का उपयोग:- शैक्षिक प्रबन्ध की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि शैक्षिक प्रबन्ध में उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग किया जाता है। आज हमारे विद्यालय में बहुत ही सीमित मात्रा में साधन उपलब्ध हैं और यही कारण है कि नई दिशा नीति में ब्लैक बोर्ड ऑपरेशन का कार्यक्रम चलाया गया है। इसमें यही प्रयास किया गया कि सभी विद्यालयों में न्यूनतम सुविधायें उपलब्ध कराई जाये इसलिए शैक्षिक प्रबन्ध की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि हमारे विद्यालय में जो भी न्यूनतम साधन उपलब्ध है उन साधानों के आधार पर शिक्षण संस्थाओं में बालकों को उचित शिक्षा दे।

शैक्षिक प्रबंधन में मुख्य कार्य (Main Functions in Educational Management)

शैक्षिक प्रबन्ध में मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य किये जाते हैं-

1. योजना:- शैक्षिक प्रबन्ध में सबसे पहले एवं मुख्य कार्य योजना बनाने से है। प्रबन्ध की सफलता बहुत कुछ योजना पर ही निर्भर करती है। योजना के अन्तर्गत हम पहले ही यह निश्चित कर लेते हैं कि कौन-कौन से कार्य करते हैं? किस प्रकार करने हैं, कब करना है और किस-किस को कौन-कौन से कार्य करने हैं?

2. संगठन:- शैक्षिक प्रबन्ध का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य संगठन सम्बन्धी है। योजना बनाने के बाद संगठन से सम्बन्धित कार्य करने होते हैं। इसमें विभिन्न कर्मचारियों के मध्य कार्यों का विभाजन करना और साथ ही इसमें सहयोग, समन्वय, सामंजस्य एवं एकीकरण करना है।

3. कर्मचारियों की व्यवस्था करना:- प्रबन्ध का एक कार्य कर्मचारियों की व्यवस्था करना है, इसमें शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार से योग्य कर्मचारियों की भर्ती करना, प्रशिक्षण देना, निरीक्षण करना, पदोन्नति देना, अनुशासन बनाये रखना आदि सभी कार्य आ जाते है।

4. निर्देश देना:- शैक्षिक प्रबन्ध के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण कार्य प्रबन्ध से जुड़े हुए सभी अधीनस्य कर्मचारियों को आवश्यकता निर्देशन देना है, इसमें अपने कर्मचारियों का समय-समय पर निरीक्षण करना और आवश्यकता परामर्श देना भी आते है। निर्देशन में ही समय-समय पर अल्पकालिक पाठयक्रम द्वारा उनको प्रशिक्षण भी दिया जाता है।

5. समन्वय करना:- शैक्षिक प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य समन्वय करना भी है। शिक्षा से जुड़े हुए वभिन्न कर्मचारियों में परस्पर सहयोग एवं एकता बनाये रखना बहुत आवश्यक है। शैक्षिक प्रबन्ध के उद्देश्यो की पूर्ति समन्वय द्वारा ही सम्भव है।

6. प्रतिवेदन तैयार करना:- शैक्षिक प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य प्रतिवेदन तैयार करना भी है। शैक्षिक प्रबन्ध में ही नहीं बल्कि सभी प्रबन्धों में अपने कार्यों की सफलता या असफलता सम्बन्धी सारी रचनाएं इसमें होती है। प्रतिवेदन में भावी कार्यक्रम सम्बन्धी कुछ बाते भी इसमें होती है। प्रतिवेदन द्वारा ही प्रबन्ध का मूल्यांकन भी किया जाता है।

7. बजट तैयार करना:- कोई भी कार्य विना धन से नहीं होता। शैक्षिक प्रवन्ध की सफलता के लिये भी यह आवश्यक है कि उपलब्ध धन का अधिकतम व उचित उपयोग हो। इसमें आने वाले वर्ष की आय और खर्चों से सम्बन्धित पूरा आय-व्यय तैयार किया जाता है।

शैक्षिक प्रबन्धन का सिद्धान्त (Principles of Educational Management)

सिद्धान्त से तात्पर्य ऐसे आधारभूत सत्य से है जो चिन्तन का आधार या मार्गदर्शक बन सके एवं जिसका सामान्य नियम के रूप में प्रयोग किया जा सके।

प्रबन्धन के सिद्धान्तों की उपयोगिता के सम्बन्ध में हुबेर्ट जी० हिक्स ने लिखा है, "प्रबन्धन के सिद्धान्त प्रबन्धकीय क्रियाओं के लिए मार्गदर्शक नियम या कानून है। उनका निर्माण, मुख्यतः परिस्थितियों के विषय में अच्छी समझ प्रदान करने के लिए तथा संगठनात्मक कार्यकुशलता में सुधार के लिए किया जाता है।” प्रबन्धन के सिद्धान्तों के आधार पर जो निर्णय लिए जाते हैं वे निश्चय ही सफल होते हैं।

1. श्रम विभाजन का सिद्धान्त:- इस सिद्धान्त को मान्यता यह है कि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक प्रकार के कार्य करने के नहीं है; अतः जो व्यक्ति शारीरिक व मानसिक दृष्टि से अमुक कार्य को करने के योग्य हो, उसे वही कार्य सौंपा जाना चाहिए।

2. अधिकार व दायित्व का सिद्धान्त:- इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार व दायित्व सहगामी है; अर्थात् यदि किसी व्यक्ति को कार्य सौंपा जाता है तो उसे आवश्यक अधिकार भी प्रदान किए जाने चाहिए और यदि कोई व्यक्ति अधिकार सम्पन्न हो तो उसे दायित्व भी समझा देना चाहिए।

3. उद्देश्यों का सिद्धान्त:– सम्पूर्ण संस्था एवं प्रत्येक भाग के उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए। संगठन को प्रत्येक क्रिया उन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु को जानी चाहिए। उर्विक के शब्दों में, "यह सिद्धान्त बतलाता है कि संगठन का प्रत्येक भाग सम्बन्धित उपक्रम के उद्देश्य का प्रतिबिम्ब होना चाहिए। कुण्टज एवं ओ० डोनेल के अनुसार, "समस्त संगठन तथा संगठन के प्रत्येक भाग को उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति में पूर्ण योगदान देना चाहिए।"

4. नियोजन का सिद्धान्त:- श्रेष्ठ नियोजन श्रेष्ठ प्रबन्धन की पूर्व आवश्यकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कार्य पूर्व निर्धारित नियोजन के अनुसार होना चाहिए। नियोजन करते समय उपलब्धियों, उपलब्ध साधनों एवं भावी परिस्थितियों का पूरा ध्यान रखना चाहिए।

5. सन्तुलन का सिद्धान्त:- यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि संगठन की विभिन्न इकाईयाँ सन्तुलित रखी जाए तथा साथ ही समस्त मानवीय एवं भौतिक साधनों, अधिकार एवं कर्त्तव्य में पर्याप्त सन्तुलन स्थापित किया जाना चाहिए।

6. सहभागिता का सिद्धान्त:- यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि संगठन के प्रत्येक स्तर से विचार एकत्र करने के बाद निर्णय लिए जाने चाहिए। ऐसा करने से जागरूकता पैदा होगी तथा इसका प्रभाव कार्य कुशलता पर भी पड़ेगा।

7. समता का सिद्धान्त:- इसका आशय यह है कि अधीनस्थों के साथ न्याय व उदारता का व्यवहार करना चाहिए जिससे कि उनकी सद्भावना व सहयोग निरन्तर बना रहे। समानता के व्यवहार से कार्य करने वाले व्यक्तियों का मनोबल ऊँचा रहता है तथा वे पूरी निष्ठा, लगन व परिश्रम से कार्य करते हैं।

8. पारिश्रमिक का सिद्धान्त:- इस सिद्धान्त के अनुसार दिया जाने वाला पारिश्रमिक व भुगतान को पद्धति न्याययुक्त व सन्तोषजनक होनी चाहिए।

9. अपवादों का सिद्धान्त:- इस सिद्धान्त के अनुसार प्रबन्धक के सम्मुख वे ही समस्याएँ आनी चाहिएँ जो नीति सम्बन्धी हो । अन्यथा प्रत्येक छोटे-मोटे निर्णय में उनका समय नष्ट होता है तथा दूसरी तरफ अधीनस्थों को कार्य निष्पादन में बार-बार रुकावटों का सामना करना पड़ता है।"

10. सहकारिता एवं संघ शक्ति की भावना का सिद्धान्त:- सहकारिता का आशय है कि संगठन के प्रत्येक सदस्य के प्रयत्नो एवं शक्ति का उपक्रम के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सम्मिलित रूप से उपयोग करना। प्रबन्धन का यह प्राथमिक उत्तरदायित्व है कि वह अपने अधीनस्थों का सहयोग एवं विश्वास प्राप्त करें जिससे उनमें संघ शक्ति की भावना का विकास हो।

शैक्षिक प्रबन्ध की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Educational Management)

वर्तमान समय में शैक्षिक प्रबन्धन का महत्त्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है इसके प्रमुख कारण हैं-

1. नियोजित चिकास द्वारा निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु:- शैक्षिक प्रबन्धन का लक्ष्य शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति होता है। इसके लिए वह नियोजन, संचालन, समन्वय, नियन्त्रण इत्यादि कार्य करते हुए प्रयास करता है। अतः व्यावहारिक एवं उपयोगी योजनाओं द्वारा शैक्षिक प्रबन्धन नियोजित विकास द्वारा उद्देश्यों की प्राप्ति करता है।

2. शैक्षिक उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि करने हेतु:- नियोजित विकास के द्वारा ही शैक्षिक उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है तथा यह दायित्व शैक्षिक प्रबन्धन पर आता है कि वह उपलब्ध परिस्थितियों में, सुनियोजित तरीके अपना कर शैक्षिक उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाने का प्रयास करे।

3. आधुनिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी आविष्कारों का लाभ उठाने हेतु:- शिक्षा के उद्देश्यों को प्रभावशाली ढंग से प्राप्त करने हेतु तकनीकी का प्रयोग शैक्षिक परिस्थितियों में किया जाना चाहिए। शिक्षण तकनीकी, सूचना तकनीकी व प्रणाली विश्लेषण आदि के उपयोग से शिक्षण प्रक्रिया को रोचक एवं आकर्षक बनाया जा सकता है। शैक्षिक प्रबन्धन का यह दायित्व है कि वह तकनीकी प्रयोग एवं दक्षता उत्पन्न करने का प्रयास करें।

4. न्यूनतम प्रयत्नों व संसाधनों द्वारा अधिकतम परिणामों की प्राप्ति हेतु:- प्रबन्धन एक ऐसी शक्ति व साधन है जिसके द्वारा समय, धन व श्रम का उपयोग करके अधिकतम उपलब्धियाँ अर्जित की जा सकती है। साधनों के प्रभावपूर्ण व मितव्ययतापूर्ण प्रयोग द्वारा वांछित लक्ष्यों को प्राप्त कर पाने में सफलता प्राप्त करना एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है।

5. विभिन्न कारकों में समन्वय के लिए:- किसी भी निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में यदि एक से अधिक कारक सम्मिलित होते हैं, तो उन सभी कारकों में परस्पर तालमेल जरूरी हो जाता है। शिक्षा तो एक ऐसा सामूहिक प्रयास है, जो अनेकानेक कारकों से प्रभावित होता है। मानवीय कारकों में समन्वय न हो तो शिक्षा के उद्देश्य प्राप्त होना ही असम्भव है। प्रबन्धन द्वारा इन सभी पर समुचित ध्यान दिया जाता है।

6. मानवीय संसाधनों का विकास करने के लिए:- शैक्षिक प्रबन्धन एक मानवीय क्रिया है। वस्तुतः प्रबन्धन की सभी क्रियाएँ मानव व्यवहार से ही किसी न किसी रूप में सम्बन्धित होती है। कुशल प्रबन्धक निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए योग्य व्यक्तियों का चयन करते हैं, उन्हें उचित प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं को पहचान कर उन्हें कार्य आवंटन करते हैं। उनकी समस्याओं का निराकरण करते हैं तथा उनके विकास के अवसर व प्रेरणा प्रदान करते हैं। अतः मानव साधनों के विकास में प्रबन्धन का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।

7. संगठनात्मक समस्याओं व द्वन्द्वों का निवारण हेतु:- संगठन अपने उद्देश्यों को उसमें काम करने वाले व्यक्तियों के माध्यम से प्राप्त करने का प्रयास करता है तथा व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए हो किसी संगठन का सदस्य बनता है। दोनों ही एक-दूसरे के माध्यम से अपने-अपने हितों को पूरा करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा होने पर अक्सर समस्याएँ व द्वन्द्व उत्पन्न हो जाते हैं। कुशल प्रबन्धक सदैव इस प्रकार का नेतृत्व प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति व संगठन के उद्देश्यों में समरूपता आए और परस्पर द्वन्द्व उत्पन्न न हो।

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