पांडावों का महाप्रस्थान | Pandavon ka Mahaprasthan | Mahabharat
महाप्रस्थान
एक दिन धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को अपने पास बुलाया और कहा– “प्रिय कुंती पुत्र! मैं वृद्ध हो चला हूं। अब मेरे मन में इन राजकीय सुखों को भोगने तथा जीवन के प्रति मोह, समाप्त हो गया है। मैं वन में जाकर तपस्या करके अपना शेष जीवन बिताना चाहता हूं।"
बहुत समझाने-बुझाने के उपरांत युधिष्ठिर ने उन्हें वन जाने की अनुमति दी, किंतु जब धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ माता कुंती भी जाने लगीं तो पाण्डव विचलित हो उठे। उन्होंने अपनी माता को वन में जाने की अनुमति नहीं दी। तब कुंती ने कहा– “पुत्र युधिष्ठिर! मुझे अपनी दीदी गांधारी की सेवा-टहल करने से मत रोको। वन में वे दोनों नेत्रहीन क्या कर पाएंगे? नहीं, मैंने निश्चय किया है कि मैं उनके साथ ही वन में जाऊंगी। हां, एक बात और पुत्र! अपने छोटे भाइयों को सदैव स्नेह से रखना और युद्ध में वीरगति पाए अपने अग्रज भ्राता कर्ण से कभी घृणा न करना । उसे सदैव आदर के साथ स्मरण करते रहना।"
विदा लेकर तीनों वन में चले गए। तीन वर्ष तक तीनों ने तपिस्वयों जैसा जीवन व्यतीत किया। एक दिन धृतराष्ट्र स्नान- पूजा करके अपने आश्रम में लौट रहे थे कि जंगल में आग भड़क उठी। आग इतनी तेजी से फैली कि उन्हें भागकर बचने का समय ही नहीं मिला और उसी अग्नि में तीनों योग समाधि लगाकर भस्म हो गए।
उधर द्वारिका में, श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध के बाद छत्तीस वर्ष तक राज्य किया, परंतु एक ऋषि के शाप से सभी यदुवंशियों का विनाश हो गया। बलराम ने अपनी इच्छा मृत्यु से अपनी नश्वर देह का त्याग कर दिया और स्वयं श्रीकृष्ण ने अपने सभी बधु-बांधवों का सर्वनाश हुआ देखकर समझ लिया कि अब अपनी लीला को समाप्त करने का समय आ गया है।
वे वन में जाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए, तभी एक शिकारी ने दूर से उन्हें हिरन समझकर बाण चला दिया। वह बाण श्रीकृष्ण के पैर के तलवे को छेदता हुआ शरीर में प्रवेश कर गया। इस प्रकार अपनी अलौकिक कीर्ति को संसार में छोड़कर श्रीकृष्ण ने अपने अवतार जीवन को विश्राम दिया। उनके शरीर से एक दिव्य ज्योति निकलकर वैकुण्ठ लोक की और चली गई।
इधर श्रीकृष्ण के निर्वाण का शोक समाचार हस्तिनापुर पहुंचा तो पाण्डवों को भी सांसारिक मोहमाया से विराग हो गया। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को हस्तिनापुर की राजगद्दी सौंपकर पांचों पाण्डव द्रोपदी को साथ लेकर तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े। कितने ही पवित्र तीर्थों के दर्शन करते हुए अंत में वे हिमालय की तलहटी में जा पहुंचे। उनके साथ-साथ एक कुत्ता भी चल रहा था।
उन्होंने पहाड़ पर चढ़ना शुरू किया। चलते-चलते और दुर्गम बर्फीले दर्रा को पार करते हुए मार्ग में द्रोपदी, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव एक-एक करके अपने पार्थिव शरीर को छोड़कर देवलोक को जाते रहे, परंतु सत्य-ब्रह्म का ज्ञान रखने वाले युधिष्ठिर उनकी मृत्यु से जरा भी विचलित नहीं हुए। वे उन्हें छोड़कर ऊपर चढ़ते ही गए। अब उनके साथ केवल वह कुत्ता ही रह गया था। वह कुत्ता और कोई नहीं, बल्कि युधिष्ठिर का धर्म था।
चलते-चलते युधिष्ठिर एक निर्जन प्रदेश में पहुंचे। चारों तरफ बर्फीली चोटियां खड़ी थीं। उसी समय देवराज इन्द्र एक सुंदर रत्नजड़ित विमान लेकर वहां प्रकट हुए। वे युधिष्ठिर से बोले– “युधिष्ठिर! द्रोपदी और तुम्हारे भाई स्वर्ग पहुंच चुके हैं। अब अकेले तुम ही रह गए हो। मैं तुम्हें सशरीर स्वर्ग ले जाने के लिए आया हूं।
युधिष्ठिर ने कहा- “देवराज इन्द्र! मैं एक ही शर्त पर आपके विमान में सवार हो सकता हूं। आपको मेरे साथ इस कुत्ते को भी ले चलना होगा।”
इन्द्र ने समझाया कि कुत्ते को स्वर्ग में नहीं ले जाया जा सकता। इस पर युधिष्ठिर ने कुत्ते के बिना स्वर्ग में जाने से साफ इंकार कर दिया। अपने पुत्र की धर्म परीक्षा लेने के लिए धर्मराज कुत्ते के रूप में युधिष्ठिर के साथ चल रहे थे। पुत्र की धर्मनिष्ठा देखकर धर्मराज कुत्ते का रूप छोड़कर साक्षात् प्रकट हुए और युधिष्ठिर को आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो गए।
धर्मराज के अदृश्य होते ही युधिष्ठिर, देवराज इन्द्र के साथ विमान में सवार होकर स्वर्ग को चले गए। वहां उन्होंने मानव शरीर त्याग कर दैवीय शरीर प्राप्त किया।