पांडावों का राज्याभिषेक | Pandavon ka Rajyaabhishek | Mahabharat
राज्याभिषेक और श्रीकृष्ण की विदाई
युद्ध में वीरगति पाए सभी लोगों का विधिवत् तर्पण करने के उपरांत बड़ी धूमधाम से हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया गया। विविध प्रकार के उत्सव करके दिवंगत परिजन, संबंधियों और मित्रों के दुख को भुलाने का प्रयत्न किया गया।
जब राज्य-व्यवस्था कुछ सुव्यवस्थित हो गई, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से विदा ली। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण को भाव-भीनी विदाई दी। श्रीकृष्ण सात्यकि के साथ द्वारिका लौट गए।
श्रीकृष्ण, जब द्वारिका लौट रहे थे, तब मार्ग में उनकी भेंट उत्तंक नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण से हुई। ब्राह्मण ने श्रीकृष्ण की वंदना करके पूछा- “माधव! आप हस्तिनापुर से लौट रहे हैं। वहां सब कुशलता से तो हैं? पाण्डवों और कौरवों में स्नेह भाव बना रहता है या नहीं?"
तपस्वी ब्राह्मण की बात सुनकर श्रीकृष्ण आश्चर्य में पड़ गए। इतना बड़ा महासंग्राम देश में हुआ और मुनि ब्राह्मण को पता भी नहीं चला। उन्हें ब्राह्मण का प्रश्न पहेली-सा लगा। फिर भी उन्होंने ब्राह्मण उत्तंक को सविस्तार सारा हाल सुना दिया कि किस प्रकार महाभारत के युद्ध में कौरवों का विनाश हो गया और पाण्डवों को राजसिंहासन प्राप्त हुआ।
सारा हाल सुनने के बाद उत्तंक मुनि को क्रोध आ गया। वे बोले— “वासुदेव! तुम्हारे देखते-देखते यह घोर अनर्थ कैसे हो गया? तुमने कौरवों को समझाया क्यों नहीं? उनकी रक्षा क्यों नहीं की? तुम चाहते तो इतना बड़ा महासंग्राम होने से बचा सकते थे। तुम्हारे रहते छल-कपट का खेल खुलकर खेला गया होगा, तभी उनका विनाश हुआ होगा। तुम ही उनके विनाश के कारण हो । मैं तुम्हें शाप देता हूं।” उत्तंक मुनि ने कमण्डल से जल अपने हाथ में ले लिया, परंतु श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर उन्हें रोका–“द्विजवर! शांत हो जाएं। आप तो बड़े तपस्वी हैं और त्रिकालदर्शी हैं। क्रोध करके अपनी तपस्या की शक्ति को क्यों नष्ट करते हैं? पहले मेरी बात ध्यान से सुन लीजिए, फिर चाहे मुझे शाप दीजिए।"
इसके बाद श्रीकृष्ण ने उत्तक मुनि को ज्ञान चक्षु प्रदान करके अपना विश्वरूप दिखाया और बोले– “मुनिवर ! संसार की रक्षा के लिए मैं विभिन्न योनियों—देव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग, जलचर, पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेता हूं और उन्हीं के अनुसार आचरण भी करता हूं। मनुष्य योनि में धर्म-स्थापना करना मेरा लक्ष्य है। कौरवों ने मेरे लक्ष्य की सिद्धि में रोड़ा अटकाया। उन्होंने अपना विवेक खो दिया। नारी की सृजन-शक्ति का अपमान किया। राजमद में आकर उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। मैंने उन्हें भयभीत भी किया, परंतु असुर वृत्ति धारण करके वे अधर्म-पर-अधर्म करते चले गए। उन्होंने समझाने पर भी अपनी हठ नहीं छोड़ी और धर्म पर चलने वालों को अनेकानेक कष्ट दिए। अतएव द्विजश्रेष्ठ! इस कारण उन्हें नष्ट होना पड़ा। अभी भी आप मुझ पर क्रोध करते हैं तो अवश्य शाप दीजिए। मैं नतमस्तक होकर आपके सम्मुख प्रस्तुत हूं।"
श्रीकृष्ण की बात सुनकर उत्तंक ऋषि एकदम से शांत हो गए। वे बोले– “हे अच्युत! तुम्हारे विश्वरूप के दर्शन करके मेरा जीवन सार्थक हो गया। बस, मुझे देवलोक जाने की अनुमति दें।”
“नहीं विप्रवर! अभी आपको इस संसार में रहकर जीव मात्र में कल्याण हेतु बिना किसी भेद-भाव के कार्य करना है। जीवन का अवसान समय आने पर ही होता है।” श्रीकृष्ण ने उन्हें संतुष्ट करके विदा किया। वे स्वयं द्वारिका की ओर प्रस्थान कर गए।
दूसरी ओर महाराज युधिष्ठिर ने अपने राज्य में सुख-शांति स्थापित करके अश्वमेध यज्ञ किया और सभी बुजुर्गों और आप्त ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त किया।
'किसी वस्तु का लोभ तभी तक रहता है, जब तक मनुष्य उसे प्राप्त नहीं कर लेता। इच्छित वस्तु के प्राप्त होते ही, उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। यह सार्वभौम सत्य है। प्रकृति के विरुद्ध जब भी कोई कार्य किया जाता है, उसका परिणाम अतिभयानक होता है। नई-नई विपदाएं और समस्याएं आ घेरती हैं। युद्ध से सुख प्राप्त नहीं होता। इससे जीवन की शांति भंग हो जाती है।'
कौरवों पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद यद्यपि पाण्डवों ने अपना एकछत्र राज्य स्थापित कर लिया था और अपना कर्तव्य समझकर प्रजा का पालन करने का भार भी वहन करना प्रारंभ कर दिया था, परंतु जिस सुख और संतोष की उन्हें आशा थी, वह उन्हें प्राप्त नहीं हुआ था। शोकातुर धृतराष्ट्र और गांधारी को वे उचित सम्मान और गौरव अवश्य प्रदान करते थे और उनसे राज-काज में सलाह भी लेते थे, लेकिन उनके चेहरों पर प्रसन्नता का भाव वे कभी नहीं ला सके। देवी कुंती दुखी गांधारी की सेवा में ही अपना सारा समय व्यतीत करती थीं और द्रोपदी भी अपने दुख को भुलाकर उनकी सेवा में लगी रहती थी, परंतु उनके चेहरों पर छाए अवसाद को दूर करने में वे सफल नहीं हो सकीं।