पितामह भीष्म का देह त्याग | Pitamah Bhishma ka Deh Tyag | Mahabharat

पितामह भीष्म का देह त्याग

भीष्म जब महाभारत युद्ध के 10वें दिन घायल होकर गिर पड़े तो उस समय सूर्य दक्षिणायन था, इसलिए वे परलोक नहीं जाना चाहते थे। उन्हें पिता शांतनु से इच्छा-मृत्यु का वरदान मिला हुआ था, लिहाजा वे अर्जुन द्वारा बनाई गई बाणों की शय्या पर ही लेटे रहे।

Pitamah Bhishma ka Deh Tyag | Mahabharat

युधिष्ठिर हस्तिनापुर का शासन-सूत्र संभालने से पहले कुरुक्षेत्र में उस स्थान पर गए, जहां भीष्म पितामह शर-शैय्या पर अभी तक मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। युधिष्ठिर अपने पूरे परिवार के साथ वहां गए थे।

युद्ध के वक्त तीरों के प्रहार से भीष्म पूरी तरह घायल हो गए थे, लेकिन भीष्म पितामह इच्छा मृत्यु के कारण जीवित रहे और बाण शैया पर विश्राम करते रहे। पवित्र गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जो व्यक्ति सूर्य के उत्तरायण में, दिन के उजाले में, शुक्ल पक्ष में अपने प्राण त्यागता है, वह सत्य व्यक्ति पुन: मृत्यु भवन में लौट कर नहीं आता है।

पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को राज्य और धर्म का मर्म समझाया। युधिष्ठिर को उपदेश देकर सूर्य को उत्तरायण आया देख भीष्म पितामह ने अपनी इच्छा से माघ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान श्रीकृष्ण की वंदना कर अंतिम सांस ली।

पाण्डवों ने विधि-विधान के साथ पितामह भीष्म का अंतिम संस्कार गंगा के किनारे किया। युधिष्ठिर अत्यंत शोक विहल हो उठे थे। धृतराष्ट्र ने उन्हें सांत्वना दी— “पुत्र! शोक न करो। तुमने तो क्षत्रियोचित धर्म का पालन किया है और विजय प्राप्त की है। मैंने ही पुत्र-मोह में किसी की बात नहीं मानी। प्रिय विदुर की भी नहीं।

यह उसी का परिणाम है। दुर्योधन की मूर्खताओं को तुम क्षमा कर दो। अब तुम ही मेरे पुत्र हो। पुत्र! कोई चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, कितना ही विवेकशील क्यों न हो, ईर्ष्या उसका पतन कर देती है। ईर्ष्या से ही वह अपमानित होता है और ईर्ष्या से ही वह नष्ट हो जाता है।"

अपनी बात कहकर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को अपने हृदय से लगा लिया। सभी हस्तिनापुर लौट आए।

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