शांतिदूत श्रीकृष्ण | Shanti Doot Shri Krishna | Mahabharat
मंत्रणा और शांतिदूत श्रीकृष्ण
तेरहवां वर्ष पूरा होने पर पाण्डव विराट की राजधानी छोड़कर एक अन्य नगर उपलव्य में रहने लगे। उपलव्य नगर विराट राज्य में ही था। अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी, इसलिए अब उन्हें छिपकर रहने की जरूरत नहीं थी। आगे क्या करना है, इस पर मंत्रणा करने के लिए उन्होंने अपने इष्ट मित्रों को संदेश भेज दिए।
भाई बलराम, श्रीकृष्ण, सात्यकि, अर्जुन की पत्नी सुभद्रा, पुत्र अभिमन्यु, इन्द्रसेन, काशिराज, वीर शैव्य, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रोपदी के पुत्र तथा अन्य मित्र नृपति गण अपनी-अपनी सेनाओं को साथ लेकर उपलव्य नगर में पहुंच गए। पाण्डवों और विराटराज ने सभी का यथोचित सत्कार किया। सबसे पहले उत्तरा और अभिमन्यु का विवाह किया गया। इस अवसर पर माता कुंती हस्तिनापुर से नहीं आ सकीं। इसका अफसोस सभी को रहा। अभिमन्यु के विवाह के उपरांत विराट की राज सभा में सभी लोग मंत्रणा के लिए एकत्र हुए।
श्रीकृष्ण ने सभी को संबोधित करते हुए कहा– “सम्मानित बंधुओ और मित्रगण! आप सभी जानते हैं कि दुर्योधन ने किस प्रकार षड्यंत्र रचकर पाण्डवों का राज्य छीन लिया और किस प्रकार दारुण दुखों को पाण्डवों ने सहन किया और अज्ञातवास तक अपना वचन निभाया। अब हम यह मंत्रणा करने के लिए यहां एकत्र हुए। हैं कि किस प्रकार युधिष्ठिर को उसका खोया राज्य वापस प्राप्त हो और कुरु वंश की यह शत्रुता समाप्त हो। आप बताएं कि न्यायोचित और धर्म का मार्ग कौन-सा होना चाहिए?"
"मेरे मत में हमें दुर्योधन से संधि करके कोई शांति का मार्ग निकालना चाहिए, क्योंकि युद्ध से किसी का भी हित होने वाला नहीं है। व्यर्थ में निर्दोष लोगों की जाने जाएंगी और विकास का क्रम रुक जाएगा।"
बलराम बोले- "कृष्ण ने जो सलाह दी है, मुझे यही न्यायोचित लगती है। यदि शांतिपूर्वक बिना युद्ध किए पाण्डव अपना आधा राज्य पा जाएं तो इससे दोनों पक्षों को लाभ होगा। सभी सुख-चैन से रह सकेंगे। इसके लिए किसी योग्य दूत को वहां भेजना होगा। उसके द्वारा समाचार भेजा जाए कि यद्यपि युधिष्ठिर ने जान-बूझकर अपनी इच्छा से जुआ खेलकर अपना राज्य गंवाया है और उसे अपने खोए हुए राज्य को मांगने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन वह हाथ जोड़कर याचना करता है कि उसे ससम्मानपूर्वक इतना अवश्य दे दिया जाए कि वह अपना शेष जीवन अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक बिता सके।"
बलराम की बात सुनकर पाण्डवों का हितैषी यदुकुल वीर सात्यकि क्रोध में भरकर उठ खड़े हुए और बोले- "बलरामजी की बातें कतई न्यायोचित नहीं है। युधिष्ठिर को जुए के खेल में कपट से हराया गया था। यह अन्याय है और अधर्म है। ये दुर्योधन के आगे झुककर याचना करें, भीख मांगें, यह में कदापि सहन नहीं कर सकता। शत्रुओं के आगे हाथ पसारने से अच्छा तो युद्ध करके प्राण देना उचित है।"
सात्यकि की बात का समर्थन राजा द्रुपद ने किया "सात्यकि का कथन सर्वथा उचित है। हमें विलम्ब न करके युद्ध की तैयारियां करनी चाहिए।"
श्रीकृष्ण ने बहस को रोकते हुए कहा- “पांचालराज की सलाह उचित है। यह सलाह राजनीति के अनुकूल है। उचित यही होगा कि पहले एक दूत वहां भेजा जाए और वह न्यायोचित रूप से संधि की बात करे।"
श्रीकृष्ण की बात सभी ने मान ली। श्रीकृष्ण, बलराम सहित द्वारका लौट गए। द्रुपदराज ने अपने राजपुरोहित को दूत बनाकर हस्तिनापुर भेज दिया।
कुछ दिन बाद दूत ने आकर बताया कि दुर्योधन किसी भी प्रकार की संधि के लिए तैयार नहीं है। उसकी बात सुनकर अर्जुन, श्रीकृष्ण से मिलने द्वारिका चले गए। दुर्योधन को पता चला तो वह भी द्वारिका जा पहुंचा। संयोग से दोनों वहां साथ-साथ पहुंचे थे। उस समय श्रीकृष्ण विश्राम कर रहे थे। दोनों श्रीकृष्ण के शयनकक्ष में चले गए। श्रीकृष्ण को सोता देखकर दुर्योधन उनके सिरहाने जा बैठा और अर्जुन उनके पायताने जाकर बैठ गया। जब श्रीकृष्ण की आंख खुली तो उन्होंने मुस्कराकर अर्जुन का कुशलक्षेम पूछा, तभी उनकी दृष्टि दुर्योधन पर पड़ी तो उन्होंने उसका भी कुशलक्षेम पूछा और उनके आने का कारण जानना चाहा।
दुर्योधन ने कहा- "कृष्ण! मैं यहां अर्जुन से पहले आया हूं, इसलिए मुझे युद्ध में आपकी सहायता मांगने का पहला हक है।"
"अवश्य! परंतु मैंने पहले अर्जुन को देखा है दुर्योधन!" श्रीकृष्ण ने कहा- "अर्जुन तुमसे छोटा है, इसलिए बुजुर्गों के बनाए नियमों के अनुसार पहला अधिकार उसी का है, इसलिए पहले इसे बोलने दो कि यह किसलिए आया है।"
"है कृष्ण! में युद्ध भूमि में आपकी सहायता के लिए यहां आया हूँ।" अर्जुन बोला।
"पार्थ! एक और मैं अकेला और निहत्था हूँ। मैं ऐसे किसी युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा, जो तुम्हारे और कौरवों के बीच लड़ा जाएगा। दूसरी ओर मेरी सशस्त्र नारायणी सेना है, जो अत्यन्त विकट वीरों से भरी पड़ी है। बोलो तुम्हें क्या चाहिए?"
"हे मित्र! मुझे तो आप निहत्थे ही स्वीकार हैं।" अर्जुन बोला।
श्रीकृष्ण ने दुर्योधन की ओर देखा तो वह बोला— “द्वारिका की सशस्त्र सेना आप मुझे दीजिए यदुनाथ!”
“तथास्तु!” श्रीकृष्ण ने उन दोनों से कहा और उनका उचित सत्कार करके विदा किया।
द्वारिका से जाने के पूर्व दुर्योधन महाबली बलराम से भी मिला और उनसे भी सहायता मांगी, किंतु बलराम ने कहा कि वे निश्चय कर चुके हैं कि कौरव-पाण्डवों के युद्ध में तटस्थ रहेंगे।
दुर्योधन प्रसन्न होकर वापस हस्तिनापुर लौट आया। उसने कर्ण और मामा शकुनि को बताया कि अर्जुन निहत्थे कृष्ण को पाकर अच्छी तरह ठगा गया।
श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के जाने के बाद अर्जुन से पूछा- “सखा अर्जुन! तुमने मेरे सैन्य बल को स्वीकार न करके मुझ निःशस्त्र को क्यों मांगा?”
“हे देव! मेरी इच्छा है कि आप इस युद्ध में मेरे सारथी बनें। तब मैं अकेला ही कौरवों की सेना को परास्त कर दूंगा। यह मेरा विश्वास है।”
अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्ण मुस्करा दिए और प्रेमपूर्वक उसे विदा किया— “आत्मविश्वास से भरपूर व्यक्ति अवश्य विजयी होता है।”
दूसरी ओर दुर्योधन भविष्य में होने वाले युद्ध के लिए पाण्डवों की भांति ही युद्ध की तैयारी जोर-शोर से कर रहा था। उसने अपने सभी मित्र राजाओं को संदेश भेज दिया था।
मद्रदेश के राजा शल्य, नकुल-सहदेव के सगे मामा थे और माद्री के भाई थे। जब उन्हें खबर मिली कि पाण्डव उपलव्य नगर में युद्ध की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने एक भारी सेना एकत्र की ओर उसे लेकर पाण्डवों की सहायता के लिए चल पड़े। जब दुर्योधन ने सुना कि राजा शल्य एक विशाल सेना लेकर पाण्डवों की सहायता के लिए जा रहे हैं तो उसने मार्ग में उनकी खूब खातिरदारी और आवभगत की। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर शल्य ने उसे कौरवों की ओर से युद्ध करने का वचन दे दिया। दुर्योधन प्रसन्न हो गया।
उधर जब युधिष्ठिर को पता चला तो उसे बड़ा दुख हुआ कि उसने मामा श्री से पहले संबंध स्थापित क्यों नहीं किया। फिर भी युधिष्ठिर, मामाश्री शल्य से मिला तो उन्होंने युधिष्ठिर से कहा- "पुत्र! मैं दुर्योधन को वचन दे बैठा हूं, इसलिए युद्ध तो उन्हीं की ओर से करूंगा, परंतु यदि कर्ण ने मुझे अपना सारथी बनाया उसकी तेजस्विता नष्ट जाएगी और इस तरह अर्जुन के प्राणों पर कोई संकट नहीं आ सकेगा। मुझे आशा है, विजय तुम्हारी ही होगी, क्योंकि तुम धर्म के साथ हो।"
उपलव्य नगर में रहकर पाण्डवों ने अपने मित्र राजाओं द्वारा सात अक्षौहिणी सेना एकत्र की। उधर कौरवों ने उससे अधिक ग्यारह अक्षौहिणी सेना एकत्र ली। एक अक्षौहिणी सेना में इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर रथ होते थे। उसी हिसाब से हाथी, घोड़े और पैदल होते थे। सेना एक रथ के साथ एक हाथी, तीन घोड़े और पांच पैदल सैनिक रखते थे।
हस्तिनापुर में युद्ध की आशंका से चिंता का माहौल था। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की हठधर्मिता से परेशान थे तो कुंती अपने पुत्रों के लिए चिंतित थी। धृतराष्ट्र, विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य आदि दुर्योधन को बार-बार समझाने का प्रयास किया, किंतु वह पाण्डवों को कुछ भी वापस करने लिए तैयार नहीं था। कुंती को यह डर था कि पितामह भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य जैसे अजेय महारथियों को उसके पुत्र किस तरह परास्त कर पाएंगे।
जिन दिनों दोनों ओर से युद्ध की तैयारियां चल रही थीं, उन्हीं दिनों अंतिम प्रयास करने 'शांतिदूत' बनकर हस्तिनापुर पहुंचे। वहां वासुदेव कृष्ण का जोरदार सत्कार हुआ। उनके साथ सात्यकि भी थे। राजमाता कुंती से भी कृष्ण ने भेंट की। कुंती ने अपने पुत्रों और परिवार के अन्य लोगों का कुशल समाचार पूछा तथा आने वाले अमंगल के लिए अपनी चिंता व्यक्त की। श्रीकृष्ण ने कुंती को सांत्वना दी और उन्हें कर्ण से भेंट करने की सलाह दी– “यदि कर्ण पाण्डवों की ओर आ जाए तो दुर्योधन का हौसला पस्त हो जाएगा।"
कुंती से मिलकर श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र की सभा में गए और कहा- “राजन्! मैं यहां पाण्डवों का राजदूत बनकर आया हूं। मेरे आने का उद्देश्य यही है कि परिवार के दोनों पक्षों के मध्य शांति स्थापित हो जाए तो अच्छा है। इसीलिए संधि-प्रस्ताव लेकर आया हूं कि आप पाण्डवों को आधा राज्य यदि नहीं देना चाहते तो उन्हें कम-से-कम पांच गांव दे दें। इससे युद्ध की आशंका दूर हो जाएगी। पाण्डव शांति प्रिय हैं, किंतु अपना अधिकार पाने के लिए वे युद्ध करने को भी तैयार हैं। यदि संधि हो जाती है तो वे दुर्योधन को युवराज और महाराज धृतराष्ट्र को महाराज के रूप स्वीकार करने लिए तैयार हैं।"
श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन तेजी से खड़ा हुआ और बोला— “मधुसूदन! आप पाण्डवों के हितैषी हैं, किंतु मेरा इसमें दोष कहां है? युधिष्ठिर तो स्वयं ही अपना राज्य स्वेच्छा से हार गए हैं। खेल की शर्त के अनुसार ही उन्हें बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना पड़ा। इसमें मैंने कौन-सा अपराध कर दिया? आप मुझे युद्ध की धमकी से मत डराइए। आप हमारा उत्तर सुन लीजिए। मैं युद्ध किए बिना सुई की नोक के बराबर भी पाण्डवों को भूमि नहीं दूंगा। पांच गांवों की बात तो बहुत बड़ी है।"
दुर्योधन की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा- "दुर्योधन! जब विनाश का समय निकट होता है तो व्यक्ति की बुद्धि उसका साथ छोड़ देती है। क्या तुम अपने दुष्कर्मों को भूल गए। द्रोपदी को भरी सभा में जिस प्रकार तुमने अपमानित किया, वही अकेला दोष, अब तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगा।" कृष्ण ने धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म की ओर देखकर कहा- "पितामह! समझाओ इस नासमझ को एक अकेला यह सारे कौरवों के विनाश का कारण बनेगा, इससे अच्छा तो यही है कि पूरे देश को बचाने के लिए, एक दुर्योधन का त्याग कर दिया जाए।"
श्रीकृष्ण की बात पर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा- "विदुर! मैं भी वही चाहता हूँ, जो श्रीकृष्ण को प्रिय है, किंतु मैं क्या करूं? मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं अपने पुत्रों को समझा सकूं। मैं विवश हूं। विदुर! तुम्हीं दुर्योधन को समझाओ।"
यह सब सुनकर दुर्योधन क्रोध से आग-बबूला हो गया और चिल्लाया— “दुःशासन! इस दूत को बंदी बना लो। सारे झगड़े की जड़ यही है।"
दुर्योधन और दुःशासन की चेष्टा देखकर सारी सभा सन्न रह गई। इससे पहले वे कुछ कहते, श्रीकृष्ण हंसे और दुःशासन तथा सैनिकों को पास आते देख एकाएक अपने विशाल रूप में आ गए। श्रीकृष्ण का विश्व रूप देखकर सारी सभा चमत्कृत रह गई। पल-भर के लिए धृतराष्ट्र ने भी अपनी अंधी आंखों में ज्योति अनुभव की और उनके मुख से निकला– "हे कमल नयन! मेरा अहोभाग्य जो मुझे आपके विश्वरूप के दर्शन हुए। अब इन नेत्रों से मैं कुछ और देखना नहीं चाहता। मेरी दृष्टि फिर से नष्ट हो जाए।"
ऐसी प्रार्थना करते ही धृतराष्ट्र की दृष्टि चली गई। दुर्योधन कांपकर रह गया। सात्यकि और विदुर, श्रीकृष्ण के पास अगल-बगल चले गए। श्रीकृष्ण ने विधिवत् सभी सभासदों से आज्ञा ली और राजसभा छोड़कर चले गए।
वे सीधे कुंती के पास पहुंचे और पूरा हाल उन्हें कह सुनाया— "बुआ ! कौरवों का काल निश्चित है। युद्ध अब अनिवार्य है।"
कुंती बोलीं- "कृष्णा! मेरे पुत्रों से कहना, क्षत्रिय माताएं जिस क्षण के लिए पुत्रों को जन्म देती हैं। वह क्षण अब आ पहुंचा है। उन्हें मेरा आशीर्वाद देना। अब तुम ही उनके रक्षक हो।"
श्रीकृष्ण तत्काल रथ पर आरूढ़ होकर उपलब्ध नगर की ओर प्रस्थान कर गए।