दानवीर कर्ण की कथा | Story of Danveer Karna in hindi | Mahabharat

दानवीर कर्ण

श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर से लौटकर पाण्डवों को वहां हुई चर्चा का पूरा हाल सुनाया। सभी ने अच्छी तरह समझ लिया कि अब शांति की आशा नहीं रही। युद्ध होना अनिवार्य हो गया है। पाण्डवों ने युद्ध की तैयारियां प्रारंभ कर दीं। उन्होंने अपनी विशाल सेना को राजा द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न के नेतृत्व में सात दलों में बांट दिया।

Story of Danveer Karna in hindi | Mahabharat

दूसरी ओर कौरवों की सेना के नायक भीष्म पितामह बनाए गए, परंतु उन्होंने एक शर्त लगा दी कि वे पाण्डु पुत्रों का वध नहीं करेंगे। दुर्योधन, भीष्म पितामह की इस बात से बहुत विचलित था। वह कर्ण को अपनी सेना का नायक बनाना चाहता था, परंतु कर्ण और भीष्म पितामह में पारस्परिक मन-मुटाव था। भीष्म समझते थे कि दुर्योधन को पाण्डवों के प्रति भड़काने वाला कर्ण ही है। इसीलिए वे उसे जली-कटी सुना दिया करते थे। वे उसे उद्दंड, घमंडी और वाचाल तक कह डालते थे।

इसी वजह से कर्ण ने उस समय तक युद्ध से अपने आपको अलग कर लिया था, जब तक भीष्म पितामह सेना का संचालन करेंगे।

पाण्डव सेना को, विशेषकर अर्जुन को कर्ण की ओर से ही विरोध पाने का सबसे अधिक खतरा था।

इस युद्ध में जब तक कर्ण के पास दिव्य कवच व कुंडल थे, तब तक उसे जीतना बड़ा कठिन था।

अर्जुन की इस शंका को देवराज इन्द्र ने भांप लिया था। वे जानते थे कि एक-न-एक दिन युद्ध भूमि में अर्जुन और कर्ण का सामना अवश्य होगा। इसी से देवराज इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के विचार से बूढ़े साधु का वेश धारण करके कर्ण के पास पहुंचे।

कर्ण उस समय सूर्योपासना कर रहा था। सूर्यदेव ने उसे स्वप्न में सचेत किया था कि उसे सतर्क रहना है और किसी के मांगने पर भी अपने कवच-कुंडल नहीं देने हैं।

परंतु जब सूर्योपासना के उपरांत ब्राह्मण वेशधारी देवराज इन्द्र ने उससे कवच व कुंडलों का दान मांगा तो कर्ण ने एक पल भी देर न लगाई और अपने कवच-कुंडल उतारकर देवराज इन्द्र को दान कर दिए।

कर्ण के दान से प्रभावित होकर देवराज इन्द्र अति प्रसन्न हुए। उन्होंने कर्ण को दर्शन देकर एक नागास्त्र प्रदान किय – “कर्ण! तेरी दानवीरता तीनों लोकों में यश प्राप्त करेगी। युगों-युगों तक लोग तेरी दानवीर कर्ण के रूप में प्रशस्ति गाएंगे। यह नागास्त्र मैं तुझे दे रहा हूं। इसका वार कभी खाली नहीं जाता। तू इसे जिस पर भी चलाएगा, उसकी मृत्यु निश्चित है।"

नाग अस्त्र पाकर कर्ण ने देवराज इन्द्र को नमन किया और अपने कवच-कुंडलों को दान किए जाने का किंचित् भी मलाल किए बिना वह अपने महल को चला गया।

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