धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर की कथा | Story of Dhritarashtra, Pandu and Vidura in hindi | Mahabharat
धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर
महाराज शान्तनु के पुत्र विचित्रवीर्य निःसंतान थे। बिना संतान के ही युवावस्था में विचित्रवीर्य की भी मृत्यु हो गई। अब सत्यवती के सामने प्रश्न आ खड़ा हुआ कि हस्तिनापुर का राज्य कौन संभालेगा।
देवव्रत भीष्म आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने का व्रत ले चुके थे और राजसिंहासन उन्होंने सत्यवती के पुत्रों के लिए त्याग दिया था, किंतु दोनों ही पुत्र निःसंतान चले गए थे।
सत्यवती गहरी चिंता में थी। इसी चिंता में उसने भीष्म को अपने कक्ष में बुलाया।
भीष्म के आने पर वे बोलीं- “प्रिय देवव्रत! तुम अपनी भीष्म प्रतिज्ञा से बंधे हो, अब तुम ही बताओ, मैं यह राज्य किसे सौंपू?”
“माते! मैं आपके प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं। मैं अपनी मर्यादा से बंधा हूं।" भीष्म ने उत्तर दिया।
“ठीक है। फिर रथ तैयार कराओ। हमें मुनिवर वेद व्यास के पास जाना है।"
“लेकिन उनके पास क्यों?”
“इसलिए वत्स कि वेद व्यास कृष्णा द्वैपायन व्यास, मेरा वैसा ही पुत्र है, जिस प्रकार चित्रांगद और विचित्रवीर्य थे।”
“यह आप क्या कह रही हैं माते?” भीष्म ने हैरानी से पूछा।
“वही, जो तुम सुन रहे हो।” सत्यवती ने कहा – “तुम अपनी प्रतिज्ञा से बंधे हो और मुझे हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी देना है। इसके लिए अब एक ही मार्ग बचा है कि मैं अपनी दोनों पुत्र-वधुओं को नियोग के द्वारा पुत्रवती बनवा दूं ।”
“क्या वेद व्यास इस नियोग के लिए तैयार होंगे?”
“क्यों नहीं होंगे? वह मेरा पुत्र है। मेरी आज्ञा को मानना उसका धर्म है।”
“किंतु माते! वह आपका पुत्र कैसे है?”
"देवव्रत! यह उस समय की बात है, जब मैं कुंवारी थी और प्रतिदिन की भांति नाव खेती थी, तभी एक दिन महातपस्वी ऋषि पराशर मेरे पास आए और मुझसे यमुना पार कराने का निवेदन किया। मैंने उन्हें नाव में बैठा लिया। बीच धारा में उन्होंने मुझसे प्रणय निवेदन किया। मैंने उनसे इंकार कर दिया, किंतु वे नहीं माने। उन्होंने मुझ मत्स्यगंधा को अति रूपवती नारी और सदैव कुमारी बने रहने का वरदान दिया और अपने तपोबल से मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति कराई थी। उसी के फलस्वरूप कृष्णा द्वैपायन वेद व्यास का जन्म हुआ। इस प्रकार में अविवाहित ही मां बन गई थी। तुम्हारे पिता महाराज शान्तनु से मेरा विवाह बाद में हुआ।"
सत्यवती अपनी कहानी सुनाकर चुप हो गईं। भीष्म कुछ देर तक सोचते रहे, तभी सत्यवती ने कहा– “पुत्र! नियोग द्वारा वंश परंपरा चलाने के लिए किसी पर-पुरुष का सहयोग पाना शास्त्र सम्मत है।"
भीष्म ने फिर कुछ नहीं पूछा। दोनों वेद व्यास के आश्रम में पहुंचे और सत्यवती ने अपने वहां आने की मंशा बताई पहले तो वेद व्यास ने इंकार किया, क्योंकि वे संन्यासी थे, लेकिन हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी की बात पर उन्होंने माता की आज्ञा मान ली।
महारानी सत्यवती की बात रानी अम्बिका ने सुनी तो वह कांप गई। जब मुनि वेद व्यास रात्रि में उसके कक्ष में आए तो लज्जा और संकोच के कारण उसने दोनों हाथों से अपनी आंखें बंद कर लीं।
दूसरे दिन वे अम्बालिका के कक्ष में गए तो अम्बालिका भय से पीली पड़ गई।
वेद व्यास ने सत्यवती को बताया कि अम्बिका एक नेत्रहीन पुत्र को जन्म देगी और अम्बालिका पांडु रोग से पीड़ित एक कृशकाय बालक को। ऐसा ही हुआ। सत्यवती दोनों बालकों को देखकर दुखी हो उठीं। ऐसे पुत्रों पर राज्यभार कैसे सौंपा जा सकता था।
सत्यवती ने अम्बिका को समझाया और उसे एक बार फिर मुनि वेद व्यास के पास जाने के लिए कहा, किंतु अम्बिका ने इस बार अपने स्थान पर अपनी दासी को भेज दिया। मुनि वेद व्यास ने अपना सारा ज्ञान, धर्म और नीति अपने इस दासी पुत्र में डाल दी।
इस प्रकार वेद व्यास की कृपा से अम्बिका ने धृतराष्ट्र को, अम्बालिका ने पाण्डु को और दासी ने धर्मात्मा विदुर को जन्म दिया। समय के साथ-साथ तीनों बालक बड़े होते चले गए। धनुर्विद्या में पाण्डु सिद्ध हस्थ थे।
धृतराष्ट्र के शरीर में सौ हाथियों का बल था और विदुर तो अत्यंत नीति कुशल थे। उन्हें हस्तिनापुर का महामंत्री बनाया गया।
जब हस्तिनापुर की राजगद्दी सौंपने का प्रश्न आया तो धृतराष्ट का दावा यह कहकर खारिज कर दिया गया कि वे जन्मान्ध थे। राज-काज करने में उन्हें परेशानी आएगी। विदुर दासी पुत्र होने के कारण राजगद्दी पर बैठ नहीं सकते थे, इसलिए पाण्डु को ही हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया। धृतराष्ट्र का अधिकार इसीलिए छीना गया था कि वे अन्धे थे। इसी बात को लेकर धृतराष्ट्र के मन में पाण्डु के प्रति विरोध और ईर्ष्या की गांठ पड़ गई।
धृतराष्ट्र का मन रखने के लिए भीष्म ने गांधार प्रदेश के राजा सुबल की सुंदर कन्या गांधारी से उसका विवाह करा दिया। तब गांधारी को पता नहीं था कि धृतराष्ट्र अंधे हैं। जब उसे अपने पति के नेत्रहीन होने का पता चला तो उसे बहुत दुख हुआ। उसने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली, ताकि उसके पति को अन्धा होने का अहसास न सताए, लेकिन गांधारी का भाई शकुनि जुआरी किस्म का आदमी था। वह गांधारी को हस्तिनापुर छोड़ने आया था। अपने बहनोई को अंधा देखकर उसे भी बड़ा दुख हुआ। उसने उसी समय संकल्प कर लिया कि वह इस कुरु वंश का सर्वनाश कराके ही दम लेगा।
पाण्डु का विवाह कुंतीभोज की पुत्री कुंती से और मद्रदेश की राजकुमारी माद्री से हुआ था।
कुंती का पहला नाम प्रभा था। वह राजा शूरसेन की कन्या थी, लेकिन शूरसेन के फुफेरे भाई कुंतीभोज ने उसे गोद लेकर उसका नाम कुंती रख दिया था।
यदुवंश के राजा शूरसेन श्रीकृष्ण के पितामह थे। इसी कारण कुंती श्रीकृष्ण की बुआ थीं। बाल्यकाल में कुंती ने एक बार एक वर्ष तक महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि की बड़ी सेवा की थी। उसी से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने कुंती को देव आह्वान का एक दिव्य मंत्र दिया था। उस मंत्र के द्वारा वह किसी भी देवता को बुलाकर पुत्र प्राप्त कर सकती थी।
दिव्य दृष्टि से दुर्वासा जानते थे कि कुंती का पति संतान उत्पन्न नहीं कर सकेगा। युवा होने पर एक दिन कुंती ने कौतूहलवश मंत्र पढ़कर सूर्यदेव का आह्वान किया तो सूर्यदेव प्रकट हो गए। वे बोले- "हे सुंदरी! तुमने मेरा आह्वान किया है। मैं तुम्हें पुत्र दान करने आया हूं।"
“नहीं!" कुती भयभीत हो उठी और बोली– “हे सूर्यदेव! मैं कुंवारी हूं। मैंने तो कौतूहलवश ही दुर्वासा ऋषि के मंत्र की परीक्षा करने के लिए देखा था। मेरे अपराध को क्षमा करें।"
परंतु मंत्र के प्रभाव के अधीन सूर्यदेव बिना पुत्र-दान किए नहीं जा सकते थे। उन्होंने कुंती को समझाया— “घबराओ मत सुंदरी! तुम्हें दिव्य पुत्र प्राप्त होगा और तुम्हारी मर्यादा भी भंग नहीं होगी।"
ऐसा कहकर सूर्यदेव कुंती को पुत्र प्रदान करके अंतर्थान हो गए। कुंती लोक निंदा के भय से परेशान हो उठी। उसने अपने पुत्र को एक संदूक में रखा और नदी में बहा दिया। वह पुत्र दिव्य कवच व कुण्डलों को धारण किए हुए था। बाद में उसे अधिरथ नामक रथी ने नदी में से निकाला और पाला।
बड़ा होने पर यह बालक महारथी कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुंती ने उसका त्याग कर दिया था, परंतु उसे वह कभी भूल नहीं पाई। कुंतीभोज ने जब कुंती का स्वयंवर रचाया तो कुंती ने महाराज पाण्डु के गले में वरमाला डालकर उन्हें अपना पति बनाया। उन दिनों राजा लोग कई रानियां रख सकते थे। पाण्डु ने अपना दूसरा विवाह मद्रराज की कन्या माद्री से किया था। विदुर ने भी एक अत्यंत धर्मपरायण युवती से विवाह कर लिया था।
एक बार महाराज पाण्डु वन में शिकार करने गए। वहां उन्होंने एकांत में वार्तालाप में मग्न एक ऋषि की हत्या कर दी जो मृगछाला वस्त्र पहने अपनी स्त्री के साथ प्रेमालाप में लीन था। बाण से घायल हुए ऋषि ने पाण्डु को शाप दिया कि जिस प्रकार अपनी पत्नी के साथ मैं अपनी जान दे रहा हूं, उसी प्रकार तेरा भी अन्त होगा।
दुखी पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों से दूर-दूर रहने लगे। एक बार वे अपनी दोनों पत्नियों के साथ वन-विहार के लिए गए। वहां कुंती ने उन्हें दुर्वासा ऋषि के मंत्र के बारे में बताया। राजा पाण्डु ने उस मंत्र के द्वारा हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी प्राप्त करने की अनुमति दे दी।
तब कुंती ने मंत्र-शक्ति के द्वारा धर्मराज का आह्वान किया तो उसके गर्भ से युधिष्ठिर का जन्म हुआ। दूसरी बार उसने पवनदेव का आह्वान किया तो भीम पैदा हुआ और तीसरी बार देवराज इंद्र का आह्वान किया तो अर्जुन पैदा हुआ।
कुंती को संतानवती होते देखकर माद्री ने अपने लिए अश्विनी कुमारों का आह्वान कराया। अश्विनी कुमारों से माद्री ने दो पुत्रों, नकुल और सहदेव को जन्म दिया।
एक दिन विहार करते हुए महाराज पाण्डु माद्री के साथ प्रेमालाप करने को आतुर हो उठे। वे उस ऋषि का शाप भूल गए और माद्री से से प्रेमालाप करने लगे। उसी समय उनका देहावसान हो गया।
माद्री ने तत्काल चिता तैयार कराई और अपने पति के साथ ही चिता में बैठकर सती हो गई।
कुंती के ऊपर पांचों बच्चों के भरण-पोषण का भार आ पड़ा। वह चाहकर भी अपने स्वामी के साथ सती नहीं हो सकी। वन में ऋषि-मुनियों के आग्रह पर और हस्तिनापुर से भीष्म के बुलाने पर कुंती अपने पांचों पुत्रों को लेकर हस्तिनापुर आ गई। हस्तिनापुर में भीष्म ने कुंती और उसके पुत्रों का स्वागत किया।
इस बीच महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी भी गर्भवती हो चुकी थी। उसने दो वर्ष तक एक लोह पिण्ड जैसे मांस पिण्ड को अपने गर्भ में रखा था। उसे जब वन में कुंती के पुत्र युधिष्ठिर के जन्म लेने का समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुई। महारानी सत्यवती के द्वारा उसने महर्षि वेद व्यास को बुलवाया। ऋषि ने उस मांस पिण्ड का प्रसव कराया और उसके सौ टुकड़े करके सौ घड़ों में घी भरवाकर अलग-अलग रखवा दिया। उन घड़ों में से सौ पुत्रों ने जन्म लिया। सबसे पहले दुर्योधन ने जन्म लिया। उसी समय वन में भीम ने भी जन्म लिया था। बाद में दुःशासन, विकर्ण, चित्रसेन आदि बालकों का जन्म हुआ।
पांचों पाण्डव और धृतराष्ट्र के सौ पुत्र मिलकर कौरव कहलाए और हस्तिनापुर का राज्य कुरुवंश कहलाया। भीष्म ने सभी बालकों की शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध विविध आचार्यों की देख-रेख में कराया। उन्हें विविध शास्त्रों, राजनीति और धनुर्विद्या तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी जाने लगी। महारानी सत्यवती हस्तिनापुर का राज्य सुरक्षित करके अपनी दोनों बहुओं को लेकर वन में चली गईं। धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राजा और युधिष्ठिर को युवराज घोषित कर दिया गया।