दुर्योधन की कथा | Story of Duryodhana in hindi | Mahabharat
ईर्ष्यालु दुर्योधन
अर्जुन इन्द्र के पास से अनेक दिव्यास्त्र लेकर वापस लौटे। अर्जुन को वापस आया देखकर उसके भाई, माता कुंती और द्रोपदी प्रसन्न हो उठे। दूसरी ओर दुर्योधन की पाण्डवों के प्रति ईर्ष्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। पाण्डवों के वनवास काल में जो ब्राह्मण और ऋषि-मुनि पाण्डवों से मिलने आते थे, वे उनकी आवभगत तथा सेवा भाव से प्रसन्न होकर हस्तिनापुर अवश्य जाते थे। वे हस्तिनापुर में महाराज धृतराष्ट्र से पाण्डवों के हाल-चाल सुनाते थे। पाण्डवों की कठिनाइयों और कष्टों को सुनकर धृतराष्ट, विदुर और भीष्म पितामह को बड़ी चिंता होती, परंतु दुर्योधन का चेहरा खिल उठता। उसके सामने कोई बोल नहीं पाता था।
कर्ण और शकुनि दुर्योधन की चापलूसी किया करते थे और उसे पाण्डवों के विरुद्ध भड़काते रहते थे।
एक दिन दुर्योधन, कर्ण से बोला– “मित्र ! मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं पाण्डवों की दुर्दशा को अपनी आंखों से देखूं। उनके सामने अपने सुख और ऐश्वर्य का प्रदर्शन करूं।"
कर्ण ने उत्तर दिया— "मुझे एक उपाय सूझा है मित्र! पाण्डव इन दिनों द्वैतवन में हैं। वहां हमारे ग्वालों की कुछ बस्तियां हैं। हम वहां अपने चौपायों की गिनती और देखभाल के बहाने से चलें तो महाराज हमें अनुमति अवश्य दे देंगे। तब हम उनकी दशा निकट से देख पाएंगे।"
शकुनि ने कर्ण की बात का समर्थन किया- “वाह! बहुत सुंदर उपाय सूझा है। जीजाश्री को जरा भी शक नहीं होगा कि हम वहां क्यों जा रहे हैं?"
दुर्योधन ने कर्ण के बताए उपाय के अनुसार अपने पिता धृतराष्ट्र से चौपायों की गणना करने की अनुमति ले ली और अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ द्वैतवन की ओर चल दिया। शकुनि और कर्ण उसके साथ थे।
द्वैतवन पहुंचकर दुर्योधन ने चौपायों की गिनती की और मुहर लगाकर विधिवत् रस्म अदा की। पाण्डवों को दिखा-दिखाकर उसने ग्वालों पर अपना खूब रौब झाड़ा। फिर सूअर का शिकार करने के बहाने वन में उस जलाशय के पास पहुंचा, जहां एक ओर पाण्डवों का डेरा था और दूसरी ओर गंधर्वराज चित्रसेन अपने परिवार के साथ डेरा डाले हुए थे। दुर्योधन के कर्मचारी चित्रसेन के डेरे के पास दुर्योधन का तम्बू लगाने लगे तो चित्रसेन के अनुचरों ने उन्हें वहां डेरा लगाने के लिए मना किया।
इसी बात पर दोनों ओर के अनुचरों में कहा-सुनी हो गई और नौबत झगड़े की आ गई। दुर्योधन ने क्रोध में भरकर अपनी सेना को आदेश दे दिया कि गंधर्वों पर टूट पड़ो। दोनों ओर की सेनाओं में घोर संग्राम छिड़ गया। गंधर्वराज ने क्रुद्ध होकर कौरव सेना पर ऐसे-ऐसे मायावी अस्त्रों से प्रहार किया कि कौरव सेना जान बचाकर भाग खड़ी हुई।
युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन दूर से ही देखते रहे कि कर्ण और शकुनि भी दुर्योधन को अकेला छोड़कर भाग गए हैं। चित्रसेन ने दुर्योधन को बंदी बना लिया। उसे बंदी बनाए जाते देख भीम प्रसन्न हो उठे। अर्जुन भी हंसने लगे, किंतु युधिष्ठिर चिंतित हो उठे। बोले – “भीम! दुर्योधन हमारा भाई है। उसकी दुर्गति पर हमें प्रसन्न नहीं होना चाहिए। हमें उसे छुड़ाना चाहिए।"
युधिष्ठिर की बात पर भीम बौखला गए। बोले– “भ्राताश्री! इस दुष्ट ने आपके साथ कितना छल किया, उसे आप भूल गए? इसने हमें लाक्षागृह में जलाकर मार डालना चाहा, मुझे खाने में विष दिया, चौसर के खेल में दुरात्मा शकुनि से आपको पराजित कराके प्रिय द्रोपदी का भरी सभा में अपमान किया। फिर भी आप उसे छुड़ाने की बात कर रहे हैं।"
“शांत हो जाओ भीम!” अर्जुन बोले– “भ्राताश्री की बात का उल्लंघन मत करो। अगर ये कहते हैं तो हमें दुर्योधन को छुड़ाना चाहिए।"
युधिष्ठिर के आग्रह पर भीम और अर्जुन ने जाकर गंधर्वराज को युद्ध के लिए ललकारा। उन्हें देखकर गंधर्वराज ने मुस्कराकर उत्तर दिया- "हे सव्यसाची! मेरा इस दुरात्मा दुर्योधन से कोई बैर नहीं है। मैंने तो इन्हें शिक्षा देने के लिए ही यह सब किया था। इन्हें अपने आप पर बड़ा अहंकार था। अगर आपकी इच्छा है तो में इसे छोड़े देता हूं।”
गंधर्वराज के संकेत पर अनुचरों ने दुर्योधन को बंधन मुक्त कर दिया। अपमानित होकर दुर्योधन पाण्डवों का उपकार माने बिना ही हस्तिनापुर की ओर लौट पड़ा।
मार्ग में कर्ण और शकुनि उसे मिले तो वह क्षुब्ध होकर बोला- “कर्ण! अच्छा होता कि मैं गंधर्वो के हाथों वहीं मारा जाता। यह अपमान तो नहीं सहना पड़ता।" कर्ण और शकुनि ने समझा-बुझाकर उसे शांत किया और हस्तिनापुर लौट आए। कर्ण ने युद्ध में अर्जुन का वध करने का संकल्प किया।
उन्हीं दिनों दुर्वासा ऋषि अपने दस हजार शिष्यों के साथ हस्तिनापुर पधारे। दुर्योधन दुर्वासा ऋषि के क्रोध को जानता था। उसने दुर्वासा ऋषि और उनके चेलों का भरपूर स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन कराया। दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हो उठे। बोले- "वत्स दुर्योधन! हम तुझसे प्रसन्न हैं। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मांग लो।"
ईर्ष्या से जला, फुंका बैठा दुर्योधन, दुर्वासा ऋषि से बोला— "मुनिवर ! मेरी आपसे प्रार्थना है कि जैसे आप अपने शिष्यों के साथ यहां पथारे हैं, उसी प्रकार आप द्वैतवन में जाकर युधिष्ठिर का आतिथ्य स्वीकार करें।"
"तथास्तु!" कहकर दुर्वासा ऋषि चले गए। दुर्योधन चाहता था कि जब पाण्डव, दुर्वासा ऋषि का आतिथ्य सत्कार नहीं कर पाएंगे तो वे पाण्डवों को शाप दे डालेंगे और वे नष्ट हो जाएंगे।
दुर्योधन की प्रार्थना पर दुर्वासा ऋषि अपने दस हजार शिष्यों के साथ युधिष्ठिर के आश्रम पर उस समय पहुंचे जब सभी खाना खाकर विश्राम कर रहे थे। युधिष्ठिर ने दण्डवत् करके ऋषि का विधिवत सत्कार किया। दुर्वासा ने युधिष्ठिर से कहा– “युधिष्ठिर! हम अपने शिष्यों के साथ स्नान करके आते हैं, तब तक तुम भोजन तैयार कराके रखना।"
दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ नदी पर स्नान करने चले गए। युधिष्ठिर और द्रोपदी सोच में पड़ गए।
वनवास में सूर्य देव ने युधिष्ठिर की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें एक 'अक्षय पात्र' दिया था और कहा था कि बारह वर्ष तक यह पात्र तुम्हें और तुम्हारे परिवार तथा तुम्हारे अतिथियों को भोजन देगा। इसकी विशेषता यह है कि द्रोपदी हर रोज चाहे जितने लोगों को इस पात्र से भोजन कराए, यह खाली नहीं होगा, परंतु सबको भोजन कराने के बाद जब द्रोपदी स्वयं भी भोजन कर चुकी होगी, तब इस ‘अक्षय पात्र' की शक्ति दूसरे दिन तक के लिए लुप्त हो जाएगी।
इसीलिए द्रोपदी सबको भोजन कराने के बाद ही सबसे अंत में भोजन करती थी। जिस समय दुर्वासा ऋषि आए, उस समय तक द्रोपदी भोजन कर चुकी थी। और अक्षय पात्र को मांज-धोकर रख दिया था। अब तो बड़ी परेशानी आ खड़ी हुई। द्रोपदी दुर्वासा ऋषि और उनके दस हजार शिष्यों को भोजन कहां से कराए। चिंतित होकर द्रोपदी ने अपने सखा श्रीकृष्ण को पुकारा– “हे प्रभु! मेरी रक्षा करो। अब महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि को तुम ही संभालो। मेरी लाज रखो प्रभु!
द्रोपदी प्रार्थना कर ही रही थी कि इतने में श्रीकृष्ण कहीं से आ गए और आते ही द्रोपदी से बोले—“बहन! मुझे बड़ी जोर की भूख लगी है। कुछ खाने को हो तो दो। जो भी घर में है, ले आओ। भूख की वजह से मेरी आंतें कुलबुला रही है।"
द्रोपदी दुविधा में पह गई। अब अपने भाई को भोजन कहां से दू? उधर दुर्वासा ऋषि भी आने वाले हैं। इस विपदा से कैसे बचूं।
"क्या सोचने लगीं कृष्णा!" श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की ओर देखा- "मैं भूख से व्याकुल हो रहा हूँ और तुम चुपचाप खड़ी हो। जाओ, अपना अक्षय पात्र लेकर आओ, देखूं उसमें कुछ बचा हो।"
द्रोपदी हड़बड़ाकर बर्तन उठा लाई। श्रीकृष्ण ने उसे उलट-पलट कर देखा और भीतर झांका। उस पात्र के किनारे पर शाक का एक पत्ता चिपका था जो धुलने से रह गया था। श्रीकृष्ण ने उस शाक के पत्ते को उंगली के छोर से उठाया और मुंह में रखकर बोले- “लो भई, मेरी भूख तो इसी से मिट गई।"
श्रीकृष्ण ने पेट पर हाथ फेरकर डकार ली और बोले– “कृष्णा! भीम से जाकर कहो, वह नदी किनारे से दुर्वासा ऋषि और उसके शिष्यों को बुला लाए।
द्रोपदी, श्रीकृष्ण को देखकर बाहर निकल गई। श्रीकृष्ण भी उसके पीछे-पीछे बाहर चले आए और युधिष्ठिर के पास जाकर बैठ गए। भीम नदी की ओर जाते हुए सोच रहे थे कि कृष्ण आज हम सबको बहुत अपमानित कराएंगे। ऋषि दुर्वासा को भोजन नहीं मिला तो वे हमें जरूर शाप दे डालेंगे।
लेकिन नदी पर जाकर उसने देखा कि दुर्वासा और उसके शिष्य वहां से जाने की तैयारी करे रहे हैं। भीम ने आगे बढ़कर उन्हें रोका और भोजन के लिए आश्रम पर चलने के लिए कहा। इस पर दुर्वासा जल्दी से बोले– “पुत्र! आज तो हमारा पेट नाक तक भरा हुआ है। जरा भी भूख नहीं है। तुम युधिष्ठिर से हमारी ओर से क्षमा मांग लेना। हम फिर कभी भोजन करेंगे।"
“लेकिन ऋषिवर! वहां जो भोजन तैयार है, उसका क्या होगा?" भीम ने चुटकी ली।
"उसे आज तुम खा लेना पुत्र!" कहते हुए दुर्वासा ऋषि मुड़कर देखे बिना ही तेजी से अपने शिष्यों के साथ वहां से चले गए।
पीछे भीम हंसते हुए वापस लौटे और उन्होंने सारी बात बताई तो सभी खूब हंसे।
द्रोपदी कृष्ण की ओर देखकर मन-ही-मन भक्ति-भाव से उन्हें नमन करने लगी। श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्कराते रहे।
पाण्डवों के वनवास की अवधि पूरी होने को थी। कुछ ही दिन शेष रह गए। थे, तभी युधिष्ठिर को धर्म देव के दर्शन हुए। उन्होंने यक्ष बनकर युधिष्ठिर के ज्ञान और धैर्य की परीक्षा ली और उसे आशीर्वाद दिया- "पुत्र! वनवास की अवधि पूरी होने पर अभी एक वर्ष तुम्हे अज्ञातवास में रहना है तुम्हें और तुम्हारे भाइयों को कोई पहचान नहीं पाएगा। इससे तुम्हारा यह अज्ञातवास सफलता से पूरा हो जाएगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम विजयी होगे।”
आशीर्वाद देकर धर्मदेव अंतर्धान हो गए। वनवास की कठिनाइयों को पाण्डवों ने पूरे धैर्य के साथ सहन किया था। अर्जुन के पास अब दिव्यास्त्र थे और भीम के पास हनुमान का बल और घटोत्कच की मायावी शक्तियां थीं।
युधिष्ठिर ने वनवासियों से विदा ली और उनसे आशीर्वाद मांगा। सभी ने आशीष दिया। पाण्डव उनसे विदा लेकर चल पड़े। सबके देखते-देखते वे घनघोर वन में जाकर अदृश्य हो गए।