महाराज शान्तनु की कथा | Story of Maharaj Shantanu in hindi | Mahabharat

महाराज शान्तनु

हस्तिनापुर के महाराज शान्तनु बड़े धर्मात्मा राजा थे। वे एक बार गंगा के तट पर विचरण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक अति सुंदर नवयुवती पर पड़ी। उस सुन्दर नवयुवती को देखकर शान्तनु उस पर मोहित हो गए। उन्होंने उससे कहा— “है सुंदरी! तुम जो कोई भी हो, मेरा प्रेम स्वीकार करो। मैं तुम्हें अपनी धर्मपत्नी बनाना चाहता हूं। मेरा समस्त राज्य-वैभव तुम्हारे चरणों में अर्पित है।"

Story of Maharaj Shantanu in hindi | Mahabharat

वह नवयुवती और कोई नहीं, स्वयं गंगा थीं, जो तट पर घूमने के उद्देश्य से आई थीं।

गंगा ने मधुर मुस्कान के साथ उत्तर दिया- “राजन! मैं आपकी पत्नी बनने के लिए तैयार हूं, किंतु आपको मेरी एक शर्त माननी होगी।"

"हे देवी! तुम्हारी हर शर्त मुझे स्वीकार है।" राजा ने उत्तर दिया।

"राजन! मैं उसी स्थिति में आपकी धर्मपत्नी बनना स्वीकार करूंगी, जब आप मुझसे यह नहीं पूछेंगे कि मैं कौन हूं, मेरा कुल अथवा वंश कौन-सा है? मैं जो कुछ भी करना चाहूंगी, करूंगी। आप मुझे नहीं टोकेंगे और यदि आपने मेरी इस शर्त को तोड़ा तो मैं उसी क्षण आपको छोड़कर चली जाऊंगी। यदि आपको मेरी ये शर्तें स्वीकार हैं तो मैं आपसे विवाह करने के लिए तैयार हूं?" गंगा ने कहा।

“मुझे तुम्हारी हर शर्त स्वीकार है। मैं इन शर्तों का पालन करने का वचन देता हूं।" राजा ने उसे आश्वस्त किया।

गंगा ने राजा से विवाह कर लिया और सुखपूर्वक महाराज शान्तनु के राजभवन में रहने लगीं।

गंगा के शील स्वभाव, विनम्रता और निर्वाध प्रेम में राजा निमग्न हो गए। समय धीरे-धीरे बीतने लगा।

समय के साथ राजा शान्तनु के यहां एक-एक करके सात पुत्र हुए, किंतु गंगा ने हर बार अपने नवजात पुत्रों को गंगा में बहा दिया। उसके चेहरे पर अपने नवजात पुत्रों को गंगा की बहती धारा में फेंकते समय जरा भी अवसाद या दुख का भाव नहीं आता था, परंतु राजा शान्तनु गंगा के इस कार्य से अत्यधिक दुखी थे।

हंसती-मुस्कराती गंगा को देखकर वे सोच में पड़ जाते कि यह तरुणी कौन है? कहां से आई है? इसका अतीत क्या है? यह अपने पुत्रों के साथ ऐसा निर्दयी और पैशाचिक व्यवहार क्यों कर रही है? पर उन्हें गंगा से उत्तर मांगने का साहस नहीं होता था, क्योंकि वे गंगा को कुछ भी न पूछने का वचन दे चुके थे।

जब आठवां बच्चा पैदा हुआ तो गंगा उसे भी गंगा में विसर्जन के लिए ले चलीं। यह देख राजा शान्तनु से नहीं रहा गया। उन्होंने अपना वचन तोड़ते हुए गंगा को रोका–“ठहरो गंगा! तुम यह घोर पाप करने पर क्यों तुली हो? एक मां होकर अपने अबोध बच्चों को क्यों मार डालती हो?"

“राजन! क्या आप अपना वचन भूल गए?" गंगा ने उत्तर दिया “आप जानते हैं कि शर्त के अनुसार अब मैं यहां एक पल भी नहीं ठहर सकती। आप जानना चाहते हैं कि मैंने ऐसा क्यों किया तो सुनिए... राजन । ऋषि-मुनि मेरा यश पतित पावनी गंगा के रूप में गाते हैं। मैंने अपने जिन सात पुत्रों को नदी में बहा दिया था, वे स्वर्ग के सात देवगण वसु थे। वे सभी महर्षि वसिष्ठ के शाप से ग्रसित थे।”

“वसु?” शान्तनु चौंके।

“हां। यह आठवां पुत्र भी प्रभास नाम का वसु है, लेकिन अब मैं इसे नदी में नहीं फेंकूंगी। मैं इसे समर्थ होने तक पालूंगी।"

“यह तो प्रसन्नता की बात है गंगे! चलो, अब कहीं जाने का विचार त्याग दो।" शान्तनु ने प्रसन्न होकर कहा।

“नहीं राजन! मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकती।” गंगा बोली– “क्या तुम वसुओं के शाप की कथा सुनना चाहोगे?”

“अवश्य सुनना चाहूंगा। कौन थे ये वसु और श्रापग्रस्त कैसे हुए थे?” राजा शान्तनु ने पूछा।

“राजन! एक बार ये आठों वसु अपनी पत्नियों के साथ महर्षि वसिष्ठ के आश्रम के पास वन-विहार कर रहे थे। सर्वत्र शांति और सुरम्य वातावरण फैला हुआ था, तभी उनकी दृष्टि महर्षि वसिष्ठ की गाय नन्दिनी पर पड़ी। उसे देखकर वसुओं की पत्नियां मुग्ध हो उठीं। उनमें से प्रभास नामक वसु की पत्नी हठ करने लगी कि यह गाय चुराकर देवलोक ले चलो, लेकिन प्रभास ने इंकार कर दिया।"

वह बोला– “नहीं प्रिय! हम देवगणों को चोरी करना शोभा नहीं देता। यह महर्षि वसिष्ठ की प्रिय गाय है। इस गाय का दूध पीने से मनुष्य अमर हो जाता है। हम तो स्वयं ही अमर हैं। इसे लेकर हम क्या करेंगे?”

“लेकिन प्रभास की पत्नी ने उसकी एक नहीं सुनी। वह अपनी जिद पर अड़ी रही। प्रभास ने विवश होकर दूसरे वसुओं के साथ गाय और उसके बछड़े को पकड़ लिया। वह उसे अपने साथ देवलोक ले गया, लेकिन जब वसिष्ठ कहीं बाहर से अपने तपोवन में लौटे तो वहां नन्दिनी को न पाकर दुखी हो उठे। उन्होंने सारा आश्रम और आस-पास का पूरा क्षेत्र छान डाला, परंतु गाय नहीं मिली। तब वसिष्ठ मुनि ने अपने ज्ञान चक्षुओं से देखा कि नन्दिनी को वसु देवगण चुराकर अपने साथ ले गए हैं। वसुओं की इस करतूत को देखकर मुनि ने शाप दे दिया— 'वसुओं ने देवगण होकर भी मनुष्यों की भांति लालच किया है, इसलिए उन्हें मृत्यु लोक में जन्म लेकर अपने पाप का प्रायश्चित करना होगा।'

“ओह! फिर क्या हुआ?” शान्तनु ने पूछा- “क्या महर्षि वसिष्ठ का शाप वसुओं को भोगना पड़ा?"

“हां, भोगना पड़ा।” गंगा ने बताया— “वसुओं को जब मुनि के शाप का पता चला तो वे मुनि के पास आकर गिड़गिड़ाए और क्षमा मांगने लगे, लेकिन मुनि ने उनसे कहा कि उनका शाप झूठा नहीं हो सकता। केवल प्रभास को छोड़कर मैं इतना कर सकता हूं कि वे पृथ्वी पर जन्म लेते ही शाप से मुक्त हो जाएंगे और देवलोक को लौट जाएंगे, लेकिन मुख्य अपराधी प्रभास को मृत्यु लोक में काफी समय तक जीवित रहना होगा और वह बड़ा यशस्वी होगा।”

“फिर?”

“फिर वे सारे वसु मेरे पास आए और मुझसे अपनी माता बनने की प्रार्थना की। मैंने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और शाप के अनुसार उन सात वसुओं को गंगा की धारा में डुबोकर मार डाला, लेकिन अब यह आठवां वसु प्रभास है, जिसे इस पृथ्वी पर काफी समय तक जीवित रहना होगा और अपने पाप का प्रायश्चित करना होगा।”

इतना कहकर गंगा अपने पुत्र को लेकर चली गई। राजा का मन गंगा के चले जाने के बाद विरक्त सा हो गया। भोग-विलास से उनका मन उचाट हो गया। वे अपना अधिकांश समय या तो राज-काज में बिताने लगे या फिर मन बहलाने के लिए शिकार खेलने वन में जाने लगे।

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