सपर्मण कौशल का अर्थ एवं आवश्यकता | Dedication Skill in hindi
सपर्मण से अभिप्राय (Meaning of Dedication)
समर्पण का अर्थ है सम + अर्पण, अर्थात् समर्पण का अर्थ हुआ अपने मन का अर्पण कर देना। समर्पण का मतलब चाहत से, आकांक्षाएँ, इच्छाओं का परित्याग। अपने अहंकार का त्याग कर जिसके समक्ष हमने समर्पण किया है उसके कहे अनुसार जीवन गुजर करना समर्पण कहलाता है। आत्मसमर्पण का भी आध्यात्म में यही अर्थ है कि अपनी आत्मा का समर्पण कर देना। यह कह देना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है। मनुष्य में परमात्मा के प्रति भी समर्पण का भाव बहुत दुर्लभ होता है, गुरू के प्रति समर्पण भाव भी दुर्लभ होता है, पत्नी का पति के प्रति, पति का पत्नी के प्रति, पुत्र का माता-पिता के प्रति भी समर्पण हो जाना बहुत दुर्लभ होता है।
सारी उम्र हम अपने अहंकार को नहीं छोड़ पाते। हम दूसरों को बिना लोभ कुछ अर्पण भी नहीं कर पाते। भगवान को भी कुछ पाने की लालसा से ही प्रसाद चढ़ाते हैं, लालसा पूर्ण नहीं होती तो भगवान् बदल लेते हैं। जबकि भगवान् तो एक ही है। हम तो भगवान् से भी छुपाते फिरते हैं। गुरु से छुपाव न रख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता है। क्योंकि, समर्पण का अर्थ है मेरे "मैं" की मृत्यु और तेरे “तू” का जन्म। अर्थात् मेरा व्यक्तित्व अब मेरा नहीं रहा वह मेरे गुरू का या मेरे परमात्मा का हो गया।
सरल शब्दों में समर्पण का अर्थ है अपने आपको मन व बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी ऐसे ईष्ट को निःस्वार्थपूर्वक सौंप देना, जिस पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो अथवा बिना किसी तर्क व संदेह किये बराबर किसी भी उपयोग हेतु ज्यों का त्यों स्वयं को किसी के हवाले कर देना। समर्पण में संदेह व तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती। जिसको समर्पण किया जाता है यदि उस पर संदेह व स्वार्थ है तो वहाँ समर्पण नहीं होता, बल्कि यह केवल नाम मात्र दिखावा है, जो सच्चे समर्पण में कोसो दूर होता है।
समर्पण में छल छिद्र व कपट का कोई स्थान नहीं होता। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने जैसे संकेत भी दिया है कि भगवान को छलिया, छिद्रान्वेषी बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं क्योंकि ये विकार समर्पण में बाधक हैं। समर्पण ठीक वैसे ही है जैसे एक कन्या विवाह के बाद अपने पति के प्रति समर्पित हो जाती है। माता-पिता का मोह छोड़कर वह अपना सब कुछ पति को ही मानत है। पति पर उसका पूर्ण विश्वास होता है। पति पर पूर्ण विश्वास ही उसके लिए जीवन का एक अर्थ है।
समर्पण में श्रद्धा का महत्त्व ज्यादा होता है। जिस पर श्रद्धा होती है, उसी पर समर्पण होता है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती, उस पर समर्पण भी नहीं होता। जब श्रद्धा किसी व्यक्ति पर होती है। और उसके प्रति समर्पण होता है तो समर्पण करने वाले को विशेष सुख मिलता है। जब श्रद्धा भगवान के प्रति होती है और व्यक्ति भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण कर देता है तो उसे विशेष आनंद मिलता है। इसीलिए योगी आदमी भगवान से योग लगाते हैं और अपने आप को पूर्ण समर्पित कर देते हैं तो वे सुख, शान्ति और परमात्मा का आनंद लेते हैं।
समर्पण क्यो करना चाहिए?
क्योंकि जब तक समर्पण नहीं होता, तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है। समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही होगा। समर्पण से ही परमात्मा सहाय बनते हैं। मीरा ने समर्पण, यह कहकर कि 'मेरो तो गिरधर गोपाल बस दूसरो न कोई' किया तो मीरा को पिलाया जाने वाला जहर परमात्मा ने अमृत में बदल दिया। द्रौपदी ने हार धककर जब अन्त में केवल और केवल श्रीकृष्ण को समर्पण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चीर हरण नहीं होने दिया और द्रौपदी की लाज की रक्षा की। द्रौपदो का कुछ काम नहीं आया, काम आया केवल भगवान के प्रति समर्पण।
राजा जनक ने अष्टावक्र ऋषि के प्रति समर्पण किया तो राजा जनक को तत्क्षण ज्ञान हो गया। रामकृष्ण परमहंस के प्रति बालक नरेन्द्र का, जोकि बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से जाने गये, समर्पण हुआ तो काली माँ उनके हृदय में प्रकट हो गई। महात्मा बुद्ध को कोई भी शास्त्र बुद्ध न बना पाया। अन्त में बालक सिद्धार्थ परम सत्ता के प्रति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे पूर्णरूपेण समर्पित हुए तो वे तत्क्षण बुद्ध हो गए और यही बालक सिद्धार्थ कालान्तर में महात्मा बुद्ध कहलाये।
समर्पण भाव की अनिवार्यता (Imperative of Dedication)
सभी लोग किसी-न-किसी भगवान में आस्था रखते हैं, परन्तु न उन्हें भक्ति के विषय में सत्यार्थ है न ही उन्हें प्रेम के विषय में, तो समर्पण के विषय में तो कैसे समझ आएगी? समर्पण शब्द है बहुत सीधा सादा अपितु है बहुत ही गूढ़। बहुत गहन अर्थ रखता है शब्द समर्पण। इसलिए आज हम समर्पण के विषय में ही बात करेंगे। यहाँ पर दिए गए सारे विचार मेरे स्वयं के हैं। किसी भी विषय वस्तु या व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखता है और अगर होता भी है तो केवल एक संयोग ही होगा।
अपने भीतर सात प्रकार के विकार होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष, ईर्ष्या और अहंकार यह सात विकारों से मुक्त होना बहुत ही कठिन है। अगर हो गए तो अंतिम चरण होता है समर्पण। समर्पण के बगैर परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है और समर्पण ही है जो भक्ति को अपने गंतव्य तक ले जाती है। समर्पण से ही आत्मा परमात्मा में लीन होती है। जब तक सम्पूर्ण समर्पण न हो तब तक यह सम्भव नहीं है। सम्पूर्ण समर्पण के बिना लक्ष्य प्राप्ति सम्भव नहीं है। यही होता है समर्पण और बड़े मजे की बात यह है कि जब तक अहंकार है तब तक समर्पण संभव नहीं होता।
समर्पण का अर्थ होता है अस्तित्व के आगे नतमस्तक होना"। अस्तित्व, प्रकृति या कहो जिससे प्रेम हो उनसे बाध्य न होना। उनसे बंधन ना होना और न किसी बंधन को थोपना। जो है उसी में स्वीकृत होना। जैसे भी है उसी में स्वीकृत होना। उदाहरण के लिए, आप अभी जैसी जिन्दगी जी रहे हैं उसी में कोई चीज आपको बहुत भाती है और कुछ चीजे आपको पसंद नहीं तो समर्पण भाव का अर्थ है आपको सब कुछ पसंद होना जिससे आप प्रेम करते हैं। आप जिससे प्रेम करते हैं उसी की इच्छा से जीना। अगर वह आपको गाली दे तो उसे भी स्वीकार करना। वह आपसे घृणा करे तो उसे भी स्वीकार होना। अगर आपसे प्रेम करे तो भी न उन्हें कोई बंधन देना है। सम्पूर्ण स्वतंत्रता देना और उसी की इच्छा नहीं अपितु उन्हीं की खुशी के लिए जोना। अपने आप का मिटा देना ही समर्पण है।
अगर आप परमात्मा को प्राप्त करने के इच्छुक है तो आपको परमात्मा की सभी कृति स्वीकार होनी चाहिए। आपको कोई मच्छर काट रहा है और आप उसे मारते हैं। तो यह समर्पण भाव नहीं हो सकता। मच्छर भी परमात्मा की एक कृति है जैसे आप हो। अगर आप परमात्मा को चाहते हैं प्रेम करते हैं तो आप उनकी कृतियों की कैसे घृणा कर सकते हैं? परमात्मा की इच्छा से जोना ही समर्पण भाव है। कुछ पिछले एक लेख में बताया था कि प्रेम हो भक्ति का उच्चतम स्तर है और भक्ति का उच्चतम शिखर है समर्पण। अगर समर्पण न हो तो प्रेम भी सम्पूर्ण नहीं होता। प्रेम को सम्पूर्णता के लिए भी समर्पण अनिवार्य है।
राधा ने कृष्ण से अचाह प्रेम किया, तो राधा ने समाज की, घर की, संसार की कोई चिन्ता नहीं की। उसने केवल और केवल प्रेम किया था कृष्ण से सम्पूर्ण समर्पण भाव था राधा में कृष्ण के प्रति तभी तो राधा अमर है हमारे दिल में राधा कृष्ण के प्रेम को यही विशेषता है। दोनों का एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव अति तीव्र था। जब यह भाव और प्रेम हमारे मन में जागृत हो जाए तो अपने प्रेमी की कोई भी बात बोले बिना पता चल जाती है। प्रेमी की इच्छा बिना कहे पता चलती है। कृष्ण तो राधा को छोड़कर चले गए थे तब सभी ने राधा से कहा था कृष्ण को भूल जाने को किन्तु राधा ने कहा था जब प्रेम भीतर से हो, परिशुद्धता के साथ हो तो दूरी कोई मायने नहीं रखती। प्रेम तो आत्मा से किया जाता है शरीर से नहीं। शरीर के तल पर होता है वह केवल प्यार, मोह और आकर्षण होता है प्रेम नहीं।
इसलिए आत्मा से प्रेम करने के लिए आपका सम्पूर्ण समर्पण भाव होना अनिवार्य है। कृष्ण कई लीला कर रहे थे, तब देखने से लगता कि कृष्ण अनुचित कर रहे हैं तब राधा ही थी जो कृष्ण के समर्थन में रहती थी। उसको विश्वास था कृष्ण कभी भी अनुचित कर ही नहीं सकता। दिखने में चाहे राधा को स्वयं के विरूद्ध लगे किन्तु राधा को कृष्ण के सभी कार्य स्वीकार्य थे। इसलिए तो हम राधा का नाम पहले लेते हैं कृष्ण के नाम से पहले, यह इसलिए क्योंकि राधा और कृष्ण का सम्पूर्ण समर्पण एक दूसरे के प्रति था और जब यह समर्पण भाव हममें जागृत हो जाएगा तो भी परमात्मा के साथ एक साक्षात्कार में विलीन हो जाएँगे।
समर्पण भाव ही है जो प्रकृति पुरुष से रखती है। प्रकृति और पुरुष भिन्न नहीं हैं अगर यह हम समझ लें तो कोई परेशानी नहीं होगी। समर्पण भाव से जीयो और जिससे भी आप प्रेम करते हो उनके प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित रहोगे तो स्वयं जान जाओगे कि कैसे अपने प्रेमी के साथ एकाकार हो जाओगे। आत्मा को परमात्मा में समाविष्ट करने के लिए यह गहन समर्पण अनिवार्य है वरना अनेक बार जन्म लेना पड़ेगा और ऐसे ही संसार के इस कालचक्र में आना-जाना लगा ही रहेगा। चाहे आप ज्ञान, योग, ध्यान, जप, तप, सांख्य, भक्ति, प्रेम या साधना कोई भी मार्ग का चयन करो पर जब तक इन सभी में सम्पूर्ण समर्पण नहीं होगा आपकी भक्ति या प्रेम किसी भी मार्ग नहीं पहुँच पाओगे अपने गंतव्य पर मनुष्य की तो छोड़ो, सभी आत्माओं का एक ही गंतव्य है वह है परमात्मा में लीन होना।
इसलिए तो प्रकृति पर हर एक जीव को धीरे-धीरे उन्नति की ओर ले जाती है। आज एक मत्स्य की योनि से उठकर प्राणी योनि में आई आत्मा को कल मनुष्य योनि प्राप्त होगी और अपनी यात्रा मोक्ष की ओर आरंभ करें। किन्तु हम सभी मनुष्य यात्रा को छोड़कर काम, क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष, ईर्ष्या और अहंकार से घिरे रहते हैं। इसी कारण से हम मुक्त नहीं हो पाते और अनन्त जन्मों की यात्रा करने रहते हैं। इसलिए जो भी मार्ग चुने, पर उसी मार्ग में लक्ष्य के प्रति समर्पण भाव रखें। अन्यथा कोई अर्थ नहीं आपकी साधना का।