रॉबर्ट गैग्ने का सीखने का सिद्धांत | Gagne's theory of Learning in hindi

रॉबर्ट गैग्ने का अधिगम सिद्धान्त (Robert Gagne's Theory of Learning)

गैग्ने ने अधिगम को इस रूप में परिभाषित किया है, "अधिगम मानव संस्कार एवं क्षमता में परिवर्तन है जो कुछ समय तक धारण किया जाता है तथा जो केवल वृद्धि की प्रक्रियाओं के ऊपर ही आरोप्य नहीं है।" गैग्ने की इस परिभाषा में चार बिन्दु स्पष्ट होते हैं जो निम्न हैं–

  1. सीखना व्यवहार में परिवर्तन है।
  2. व्यवहार परिवर्तन संभाव्य हो सकते हैं।
  3. व्यवहार व क्षमता में होने वाले परिवर्तन दीर्घकालिक नहीं होते हैं।
  4. अधिगम शब्द का प्रयोग क्षमताओं में होने वाले उन परिवर्तनों के लिए नहीं होता जो परिपक्वता के कारण होते हैं।

गैग्ने की धारणा है कि साधारण व्यवहार के लिए कुछ पूर्व आवश्यकताओं का निर्धारण करना जरूरी होता है; जैसे-बोध स्तर के शिक्षण के लिए स्मृति स्तर का शिक्षण पूर्व आवश्यकता होती है। गैग्ने ने शिक्षण को परिभाषित करते हुए कहा है कि "छात्र के लिए बाह्य रूप में अधिगम परिस्थितियों की व्यवस्था करना ही शिक्षण होता है। इस अधिगम परिस्थितियों की व्यवस्था में स्तरीकरण किया जाता है। प्रत्येक अधिगम परिस्थिति के लिए उनकी पूर्व परिस्थिति छात्र के लिए आवश्यक होती है जिससे धारण शक्ति विकसित होती है।"

गैग्ने ने अपनी कृति 'कंडीशन ऑफ लर्निंग' (Condition of Learning) में अधिगम के आठ प्रकार (eight types) बताए हैं जिन्हें सरल से जटिल के क्रम में देखा जा सकता है। गैग्ने का मानना है कि व्यक्ति में किसी एक प्रकार के व्यवहार के अधिगम के लिए पूर्वापेक्षा आवश्यक होती है अर्थात् अधिगम का प्रत्येक प्रकार अपने से पूर्व अधिगम से सम्बन्धित होना है, किसी नवीन प्रकार के अधिगम करने के लिए उससे पूर्व प्रकार के अधिगम का ज्ञान अपेक्षित होता है। इस रूप में गेने द्वारा वर्णित अधिगम के आठ प्रकार सोपानानुसार पदानुक्रम में वर्णित हैं जिन्हें उत्तरोत्तर क्रम में निम्नानुसार देखा जा सकता है।

गैग्ने द्वारा किये गये अधिगम के 8 प्रकार (8 Types of Learning done by Gagne)

गैग्ने ने अधिगम की निम्नलिखित 8 परिस्थितियों की व्याख्या की है। इनके अधिगम के स्तर की व्यवस्था इस प्रकार है-

  1. संकेत अधिगम
  2. उद्दीपन अनुक्रिया अधिगम
  3. शृंखला अधिगम
  4. शाब्दिक साहचर्य अधिगम
  5. विभेदी अधिगम
  6. प्रत्यय अधिगम
  7. अधिनियम या सिद्धान्त अधिगम
  8. समस्या समाधान अधिगम
Gagne's theory of learning in hindi

1. संकेत अधिगम:- संकेत अधिगम परिस्थिति पावलव द्वारा प्रस्तुत शास्त्रीय अनुबन्धन पर आधारित है। जब स्वाभाविक उद्दीपक के साथ अस्वाभाविक उद्दीपन बार-बार एक साथ प्रस्तुत किया जाता है तो स्वाभाविक उद्दीपक के स्थान पर अस्वाभाविक उद्दीपक ही स्वाभाविक प्रतिक्रिया कराने में सक्षम हो जाते हैं। जैसे- पावलव के प्रयोग में घंटी के बजने से ही कुत्ता लार गिराने लगता है। छोटे बालकों को अक्षर जान में संकेत अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न किया जाता है, जैसे-क अक्षर की पहचान कराने के लिए उसके साथ कबूतर का चित्र ख के लिए खरगोश का चित्र प्रस्तुत करना। इस प्रकार की परिस्थिति स्मृति स्तर के शिक्षण में उत्पन्न की जाती है। इस प्रकार का अधिगम छोटे बालकों को अच्छी आदतें सिखाने में लाभप्रद हैं किन्तु उच्च कोटि के अध्ययन में संकेत अधिगम में विशेष लाभदायक नहीं है अतः इसे गेने द्वारा निम्न स्तर पर रखा गया है।

2. उद्दीपन अनुक्रिया अधिगम:- गैग्ने के द्वारा वर्णित द्वितीय प्रकार का अधिगम उद्दीपन अनुक्रिया अधिगम है जो थॉर्नडाइक के प्रयास और त्रुटि सिद्धान्त, स्किनर के क्रिया प्रसूत अनुबन्धन तथा किम्बल के साधनात्मक अधिगम के समान है। गेने के प्रथम प्रकार के संकेत अधिगम के विपरीत इस प्रकार के अधिगम में विशिष्ट उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया अपेक्षाकृत निश्चित और यथार्थ होती है।

उदाहरणार्थ- अपने गले में बँधे पट्टे और जंजीर के स्वामी के द्वारा दिये जाने वाले विशिष्ट झटकों के प्रति कुत्ता विशिष्ट अनुक्रियाएँ सीखता है। इसके लिए उसे पुरस्कार और प्रशंसा मिलती है, परन्तु बाद में उसके गले में न तो पट्टा बंधा होता है और ना हो जंजीर का प्रयोग किया जाता है, फिर भी वह स्वामी के मौखिक आदेश मात्र से बैठने, खड़े होने लेटने आदि को अनुक्रिया करता है और यह अनुक्रिया निश्चित यथार्थ और उत्तम होती है। इस प्रकार सही अनुक्रिया से नवीन व्यवहार सीखने से उसे आगे के लिए पुनर्बलन मिलता है। थॉर्नडाइक का प्रयास और त्रुटि अधिगम भी इसी श्रेणी का अधिगम है। इस प्रकार के अधिगम से शाब्दिक दक्षताएँ बालकों को सिखायी जा सकती है।

3. श्रृंखला अधिगम:- गैग्ने द्वारा वर्णित यह अधिगम का तीसरा प्रकार है। श्रृंखला अधिगम में दो या अधिक उद्दीपन अनुक्रिया सम्बन्धों को साथ-साथ जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार के अधिगम में वैयक्तिक सम्बन्धों को क्रमानुसार सम्बन्धित किया जाता है। शृंखला से आशय वैयक्तिक सम्बन्धों का क्रम में उपस्थित होना है।

उदाहरणार्थ- एक बालक जिसने दरवाजा खोलने की श्रृंखला को नहीं सीखा (उद्दीपन-अनुक्रिया सम्बन्ध दरवाजा खोलने की क्रिया को स्पष्ट करते हैं)। जैसे- हाथ में चाबी, ताले को देखना, ऊपर की सीध में चाबी का निरीक्षण करना, उसे ताले में डालना जब तक की वह पूर्ण रूप से अंदर न पहुँच जाए, इस चाबी को दूसरी ओर घुमाना, जब तक कि यह पूरी तरह न पहुँच जाए, खुले दरवाजों को धक्का देना।

इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब तक व्यक्ति श्रृंखला को पूर्ण रूप से नहीं सीख जाता तब तक वह पूर्ण नहीं हो सकता। यह एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है। यह स्थिति तब आती है जब व्यक्ति संकेत अधिगम और उद्दीपन अनुक्रिया अघिगम दोनों से परिचित हो जाता है।

रॉबर्ट गैग्ने ने दो प्रकार के श्रृंखला अधिगम (chain learning) की व्याख्या की है- शाब्दिक और अशाब्दिक श्रृंखला अधिगम

  • (i). शाब्दिक श्रृंखला (Verbal Chain Learning):- अधिगम में अध्यापक विषय-वस्तु को एक क्रम में प्रस्तुत करता है जिससे अधिगम के स्थानान्तरण में सुगमता होती है।
  • (ii). अशाब्दिक शृंखला (Non verbal Chain Learning):- अधिगम हेतु चित्रों या अन्य दृश्य साधनों को क्रमानुसार प्रस्तुत किया जाता है जैसे किसी जीव के भ्रूण से वयस्क तक के विकास की अवस्थाओं को चित्रों द्वारा क्रम में प्रस्तुत करना।

4. शाब्दिक साहचर्य अधिगम:- अधिगम परिस्थिति का यह प्रकार शृंखला अधिगम का ही एक प्रकार है। इस प्रकार के अधिगम में शाब्दिक अनुक्रिया क्रम की व्यवस्था की जाती है। शाब्दिक इकाई को सीखने के लिए उससे पूर्व की इकाई सहायता प्रदान करती है। अधिक जटिल शाब्दिक श्रृंखला के लिए व्यवस्था क्रम एवं संकेत का कार्य करता है।

अण्डरवुड ने इस अधिगम परिस्थिति को मानव अधिगम में अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। वाचिक श्रृंखला अधिगम परिस्थितियों से जटिल व्यवहारों का विकास किया जा सकता है। उदाहरण- कविता या गीत के पदों के प्रस्तुतीकरण का विशेष क्रम।

उदाहरणार्थ- जब बालक गेंद को पहचानकर उसे गेंद कहने के साथ-साथ लाल गेंद कह देता है उस स्थिति में वह 3 इकाइयों का शब्द साहचर्य सोख जाता है। गेने का मानना है कि लंबी मुखलाओं को छोटी-छोटी इकाइयों में तोड़कर अधिगम को अधिक सफल बनाया जा सकता है। मौखिक-व्यवहारो, शाब्दिक सम्बन्धों को इस प्रकार से सीखा जा सकता है। भाषा अधिगम के लिए उपयोगी है।

5. विभेदी अधिगम:- इस अधिगम प्रक्रिया के लिए वाचिक (Verbal) तथा अवाचिक (Non-verbal) श्रृंखला की पूर्व आवश्यकता है। इसमें दो श्रृंखलाओं में विभेदीकरण की क्षमताओं का विकास किया जाता है। इस स्तर पर विद्यार्थी में विभिन्न उद्दौपनो के प्रति भिन्न-भिन्न अनुक्रियाएँ करने की क्षमता विकसित होती है जबकि दोनों उद्दीपन मौलिक रूप में समान प्रतीत होते हैं, जैसे पेट्रीडिश में रखे दोनों सफेद चूर्णों को जो देखने में एक से प्रतीत होते हैं, गुणों के आधार पर विद्यार्थी पहचान सके कि कौन-सा नमक है और कौन-सा नौसादर। इसके लिए बोध स्तर शिक्षण उपयोगी होता है। प्रसाद, प्रासाद शब्दों में प्रयोग के आधार पर भेद पहचान सके।

6. प्रत्यय अधिगम:- इस अधिगम के लिए बहुभेदीय अधिगम पूर्व आवश्यकता है। केण्डलर (1964) ने प्रत्यय अधिगम का सर्वप्रथम उल्लेख किया। गेने ने सम्प्रत्यय अधिगम को इस प्रकार परिभाषित किया है जो अधिगम, व्यक्ति में किसी वस्तु या घटना को एक वर्ग के रूप में अनुक्रिया करना संभव बनाते हैं उन्हें हम सम्प्रत्यय अधिगम कहते हैं।

बालक इस स्तर की अधिगम क्रिया में सर्वप्रथम किन्ही पदार्थों की अनुभूति करता है, फिर उनके गुणों का विश्लेषण करता है, उनके सामान्य गुणों को पहचानता है और इन सामान्य गुणों के आधार पर इन पदार्थों का अन्य पदार्थों से विभेदीकरण करता है, वर्गीकरण करता है और अन्त में उस वर्ग का नामकरण करता है।

जब बालक अन्य सकारात्मक उदाहरणों (positive examples) के उस वर्ग में होने का कारण स्पष्ट करता है तब यह स्थिति दर्शाती है कि बालक ने सम्प्रत्यय को भली-भाँति ग्रहण कर लिया है; जैसे— वह स्पष्ट कर सके कि सभी चमकने वाली वस्तु धातु नहीं होती। धातु संकल्पना के लिए सामान्य ताप पर ठोस अवस्था सुचालकता, तन्यता, धातुवर्धनीयता, कठोरता आदि सामान्य गुणों का होना आवश्यक है। इसी आधार पर तांबा, चाँदी, सोना धातु सकल्पना के सकारात्मक उदाहरण है।

गैग्ने के अनुसार, "जो अधिगम व्यक्ति में किसी वस्तु या घटना को एक वर्ग के रूप में अनुक्रिया करना सम्भव बनाते हैं उन्हें हम सम्प्रत्यय अधिगम कहते हैं। इस अधिगम में विश्लेषण, संश्लेषण, वर्गीकरण, विविधीकरण एवं सामान्यीकरण सभी प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।

सम्प्रत्यय अधिगम के चार प्रकार होते हैं- सर्वप्रथम बालक प्रत्यक्ष तथा किसी वस्तु को मूर्त स्तर पर देखता है फिर द्वितीय स्तर पर बालक परिचयात्मक स्तर पर दो पदार्थों में भिन्नता करना सीखता है। इसके अनन्तर उसमें वर्गीकरण की क्षमता विकसित होती है। यह दी गई संख्या सारणी में से समान संख्याओं के विपरीत असमान संख्या का चयन कर लेता है तो कहा जा सकता है कि उसे असमान संख्या का सम्प्रत्यय स्पष्ट हो गया है।

7. अधिनियम/सिद्धान्त अधिगम:- अधिनियम अधिगम के लिए प्रत्यय अधिगम पूर्व आवश्यकता है। जब छात्र प्रत्यय को भली-भाँति ग्रहण कर लेता है तो व्यवहार का नियन्त्रण इस प्रकार किया जाता है कि वह प्रत्ययों के आपसी सम्बन्ध को शब्दों में नियम के द्वारा व्यक्त कर सके, नियम या सिद्धान्त का निर्माण कर सके। इसके लिए शिक्षण व्यवस्था चिन्तन स्तर पर की जाती है।

जैसे— क्षेत्रफल और दाब सम्प्रत्यय को समझने के बाद ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाए कि विद्यार्थी क्षेत्रफल और दाब के सम्बन्ध को नियम में व्यक्त कर सके, कि क्षेत्रफल अधिक होने पर दाब कम हो जाता है तथा क्षेत्रफल कम होने पर दाब बढ़ जाता है।"

8. समस्या समाधान अधिगम:- इसके लिए अधिनियम-अधिगम की आवश्यकता होती है। इसके अन्तर्गत केवल अधिनियमों का प्रयोग ही नहीं किया जाता बल्कि बालक अपनी मौलिकता एवं सृजनात्मकता (creativity) का प्रयोग करके समस्या का समाधान करता है। इस प्रकार के अधिगम स्वरूपों के लिए चिन्तन स्तर का शिक्षण ही उपयुक्त होता है। जब विषय वस्तु को छात्र के समक्ष समस्यात्मक परिस्थिति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो बालक समस्या को अनुभव करता है फिर उसे प्रभावित करने वाले कारकों पर विचार करता है, उसके समाधान हेतु परिकल्पनाओं का परीक्षण करता है और अन्त मे निष्कर्ष निकालता है और सामान्यीकरण करता है। यह समस्या समाधान सीखने की सर्वोच्च सीढ़ी है।

गैग्ने में इस संदर्भ में मत व्यक्त किया है कि "समस्या समाधान की प्रक्रिया से उच्च स्तर के सिद्धान्तों की उत्पत्ति होती है जो अन्ततः व्यक्ति के परिमार्जित व्यवहार के विभिन्न अंग बन जाते है। समस्या समाधान निश्चय ही अधिगम के एक प्रारूप के अन्तर्गत लिया जाता है।" अत: अधिगम की व्याख्या उपर्युक्त वर्णित आठ परिस्थितियों के माध्यम से की जा सकती है जो परस्पर शृंखलाबद्ध है और एक दूसरे के लिए पूर्व आवश्यकता है।

शिक्षण अधिगम के सम्बन्ध में घटक (Components in Relation to Teaching-Learning)

शिक्षण के उद्देश्य, अधिगम के स्वरूप तथा शिक्षण के स्तर में घनिष्ठ समानता होती है। शिक्षण में जिस प्रकार उद्देश्य सुनिश्चित किये जाते हैं, उसी के अनुसार अधिगम परिस्थितियां उत्पन्न की जाती है और उसी के अनुरूप शिक्षण का स्तर निर्धारित होता है।

जैसे- बोध एवं ज्ञानोपयोग उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शाब्दिक शृंखला अधिगम तथा बहुभेदोय अधिगम परिस्थितियाँ आवश्यक होगी और शिक्षण बोध स्तर का होगा। एक स्तर के विकास के लिए उससे नीचे के स्तर की पूर्व आवश्यकता होती है। चिन्तन स्तर के विकास के लिए बोध स्तर का शिक्षण पूर्व आवश्यकता है। मूल्यांकन उद्देश्य के लिए संश्लेषण उद्देश्य पूर्व आवश्यकता है और समस्या समाधान अधिगम के लिए अधिनियम अधिगम पूर्व आवश्यकता है। इन तीनों के सम्बन्ध को नीचे चित्र में दी गई सारणी द्वारा भली-भाँति समझा जा सकता है।

शिक्षण प्रक्रिया के चार पक्षों के सम्बन्ध के रूप में हासफोर्ड ने शिक्षण के चार प्रमुख पक्ष माने हैं जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक अनुदेशन सिद्धान्त में किया है। यह चार पक्ष हैं-

  1. छात्र (अधिगम):- अधिगम वह प्रक्रिया है जो अनुभव या प्रशिक्षण द्वारा छात्र के व्यवहार में परिवर्तन लाती है।
  2. शिक्षक (शिक्षण):- शिक्षण वह प्रक्रिया है जो अधिगम में सुगमता प्रदान करती है।
  3. पाठ्यक्रम:- पाठ्यक्रम में विद्यालय द्वारा नियोजित अनुभवों को सम्मिलित किया जाता है।
  4. शैक्षिक आयोजन:- शैक्षिक आयोजन में समस्त शैक्षिक अनुभवों की क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है जो विद्यालय में तथा विद्यालय से बाहर की जाती है।

इन चार पक्षों की अंतर्क्रिया को निम्न प्रकार से चित्र द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है-

उपयुक्त चित्र यह दर्शाता है कि शिक्षण अधिगम, पाठ्यक्रम तथा शैक्षिक आयोजन यह सभौ तत्त्व परस्पर किसी न किसी स्तर पर एक दूसरों से सम्बन्धित हैं और इनमें आपसी अंतर्क्रिया होती है तथा कई क्षेत्रों में इनका समाविशिष्टीकरण होता है। यह समाविशिष्टीकरण 7,3,4,5,1,6 क्रमांक द्वारा चित्र में दर्शाया गया है। क्रमांक 2 इस बात का प्रतीक है कि यहाँ सभी पक्षों में अंतक्रिया होती है।

निष्कर्ष (Conclusion)

हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि शिक्षण तथा अधिगम के सम्बन्ध के लिए अधिगम परिस्थितियाँ महत्त्वपूर्ण घटक होती है। उचित अधिगम परिस्थितियों में शिक्षण की क्रियाएँ, अधिगम प्रक्रिया का संचालन करती है जिनमें छात्र अपने अनुभव तथा क्रियाओं द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाता है। शिक्षण तथा अधिगम की क्रियाओं के समन्वय से बालक के व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है। अतः छात्र के विकास के लिए शिक्षण तथा अधिगम की क्रियाओं का समन्वय जरूरी है।

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