विद्यालय प्रबन्धन का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, क्षेत्र, महत्त्व एवं सिद्धान्त | Meaning, Definition, Objectives, Scope, Importance and Principles of School management in hindi
विद्यालय प्रबन्धन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definitions of School Management)
‘विद्यालय प्रबन्धन' को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-"विद्यालय प्रबन्धन एक विशेष प्रक्रिया है जिसका कार्य विद्यालय के मानवीय एवं भौतिक संसाधनों को ऐसी गतिशील संगठन इकाइयों में परिवर्तित करना है जिसके द्वारा उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इस प्रकार कार्य किया जा सके कि जिनके लिए प्रबन्धन किया जा रहा है अर्थात् छात्रों तथा छात्राओं के लिए, उन्हें सन्तुष्टि प्राप्त हो सके तथा जो कार्य कर रहे हैं, उनमें उच्च नैतिक स्तर बनाये रखते हुए उत्तरदायित्व निभाने की भावना बनी रहे।'
विद्यालय प्रबन्धन की आवश्यकता (Need for School Management)
विद्यालय के कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए ही विद्यालय प्रबन्धन की आवश्यकता पड़ती है। विद्यालय एक सामाजिक संस्था है। उसे एक विशेष उत्तरदायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। विद्यालय में बालक समाज के सदस्यों के रूप में अध्ययन करते हैं। वास्तव में विद्यालय का प्रमुख केन्द्र बालक है। बालक के बहुमुखी विकास के लिए आवश्यक है कि विद्यालय में योग्य अध्यापक, उपयुक्त भवन, उपयुक्त खेल-कूद की व्यवस्था, उचित पाठ्य सामग्री, आदि का व्यवस्थित ढंग से प्रबन्ध हो।
यदि इन बातों को उचित रूप में पूरा नहीं किया गया तो बालक का सर्वांगीण विकास होना अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार विद्यालय प्रबन्ध विद्यालय की आत्मा है। बिना उचित प्रबन्धन के समय साधनों के होते हुए भी विद्यालय एक प्रकार से निर्जीव शरीर के समान है। किसी विद्यालय के अन्दर पर्याप्त मात्रा में छात्र हों, योग्य अध्यापक हो तथा अन्य पढ़ने-लिखने के पर्याप्त साधन हो परन्तु उचित विद्यालय व्यवस्था के शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफलता नहीं मिल सकती।
विद्यालय प्रबन्धन के उद्देश्य (Objectives of School Management)
प्रत्येक संस्था के अपने लक्ष्य और आदर्श होते हैं और उनकी सफलतापूर्वक प्राप्ति के लिए उचित प्रबन्ध की आवश्यकता होती है। विद्यालय एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। अतः इसकी एक सुसंगठित प्रबन्धात्मक व्यवस्था होनी चाहिए। बिना किसी प्रभावशाली प्रबन्ध के विद्यालय जीवन में दुर्व्यवस्था एवं संभ्रान्ति फैल जाने की सम्भावना बनी रहती है। एक प्रभावशाली प्रबन्ध विद्यालय में उचित व्यवस्था करता है। यह उचित व्यक्तियों को उचित स्थान पर, उचित समय में, उचित ढंग से रखता है। विद्यालय प्रबन्धन के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-
1. शिक्षाविदों द्वारा बनाये गये लक्ष्यों की निष्ठापूर्वक पूर्ति:- लोकतन्त्र में शिक्षा को प्रजातान्त्रिक आदर्शों की शर्तें पूरी करनी होती है। शैक्षिक प्रवन्ध को सामाजिक कूटनीतिज्ञता के रूप में लेना चाहिए, शैक्षिक प्रबन्ध को क्रियाविधिमूलक रूप में नहीं लेना चाहिए। विद्यालय प्रबन्धन के लक्ष्यों को पी०सी० रेन के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है- "छात्र के लाभ हेतु उसकी मनः शक्ति के प्रशिक्षण, उसके सामान्य दृष्टि विस्तृत करने, उसके मस्तिष्क को उन्नतिशील बनाने, चरित्र का निर्माण करने एवं शक्ति देने, उसे अपने समाज एवं राज्य के प्रति कर्त्तव्य का अनुभव कराने आदि के लिए ही विद्यालय को संगठित किया जाए। यही एक उद्देश्य है जिसके लिए छात्र को तैयार किया जाए, न कि उसे माध्यमिक परीक्षा के लिए तैयार कराने हेतु।"
2. मिल-जुलकर रहने की कला सिखाना:- विद्यालय जीवन को इस प्रकार संगठित करना है कि जिससे बच्चे एक साथ रहने की कला को ग्रहण करने के लिए तैयार हो सकें। विद्यालय का अपना सामुदायिक जीवन होता है जिसे एक उत्तम नागरिकता के प्रशिक्षण के क्षेत्र में प्रयोग में लाया जा सकता है।
3. स्कूल सम्बन्धी गतिविधियों तथा कार्यों का संचालन तथा संयोजन:- शिक्षाशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित उद्देश्यों एवं मन्तव्यों को परिपक्व रूप देने के लिए आवश्यक है कि विभिन्न योजनाओं तथा प्रक्रियाओं का संकलन इस ढंग से किया जाए कि उचित व्यक्ति को सुयोग्य एवं समुचित स्थान मिल सके ताकि कार्य समयानुसार होता रहे।
4. विद्यालय में सहयोग की भावना लाना तथा जटिल कार्यों की सुलभता:- विद्यालय प्रबन्ध में सहयोग की भावना का अपना ही स्थान है। मानवीय स्तर पर शिक्षा प्रबन्ध का सम्बन्ध बालकों, अभिभावकों, शिक्षकों, नियुक्तिकर्ता एवं समाज से होता है। साधनों के स्तर पर इसका सम्बन्ध सामग्री एवं उसके उपयोग से होता है। साथ ही सिद्धान्तों, परम्पराओं, नियमों, कानून आदि से भी इसका नाता जुड़ा हुआ होता है। विद्यालय सम्बन्धी अन्य प्रकार की समस्याओं का समाधान करना होता है। विद्यालय प्रबन्धन अपने मकारात्मक रूप से कार्यक्रम को एक विशेष दिशा देकर जटिल कार्य को सुलभ बनाकर भव्य परिणाम सम्मुख प्रकट करता है।
5. विद्यालय को सामुदायिक केन्द्र के रूप में बनाना:- विद्यालय में इस प्रकार के कार्यक्रम रखे जाएँ जिनके द्वारा छात्र तथा अभिभावक यह अनुभव करें कि विद्यालय उसका है। विद्यालय समाज-सेवा का केन्द्र है।
6. शिक्षा सम्बन्धी प्रयोग तथा अनुसन्धान के लिए समुचित व्यवस्था करना:- वर्तमान युग में समाज की प्रगतिशीलता उत्तरोत्तर विकसित हो रही है। प्रबन्धको का कर्त्तव्य है कि शिक्षाशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित नवीन विचारों, धारणाओं एवं प्रयोगों को ध्यान में रखें। विद्यालय की विशेष परिस्थिति के अनुसार उनकी उपयोगिता को परखें समयानुकूल परिवर्तन करके लाभ उठायें। शिक्षा सम्बन्धी प्रक्रियाओं के समय-समय पर संशोधन होने के साथ-साथ यदि समीक्षा भी होती रहे तो श्रेयस्कर होगा।
विद्यालय प्रबन्धनन का क्षेत्र (Scope of School Management)
विद्यालय प्रबन्ध का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और इसके प्रबन्धन के अन्तर्गत वे सभी शैक्षिक परियोजनाएं आती हैं जो प्रजातन्त्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। विद्यालय प्रबन्ध विद्यालय प्रणाली -के सभी सम्बन्धों से सम्बन्धित है; जैसे-प्रधान एवं छात्रों का सम्बन्ध, छात्र एवं अध्यापक वर्ग का सम्बन्ध, विद्यालय एवं समाज का सम्बन्ध, निम्न कर्मचारियों एवं अध्यापक वर्ग का सम्बन्ध, प्रधानाध्यापक एवं अध्यापक का सम्बन्ध, विद्यालय एवं राज्य अथवा विश्वविद्यालय का सम्बन्ध आदि। इससे निम्नलिखित कार्य सम्बन्धित हैं–
- विद्यालय प्रवन्ध के उद्देश्यों का निर्माण।
- अध्यापक वर्ग के कार्य में समन्वय।
- विद्यार्थियों का वर्गीकरण एवं समूहीकरण।
- पाठ्यक्रम सहगामी कार्यक्रमों का क्रमिक संगठन।
- पाठ्यक्रम नियोजन एवं कार्य विभाजन।
- विभिन्न सेवाएँ; जैसे- भवन एवं उपकरण प्रयोगशाला, पुस्तकालय, स्वच्छता आदि का प्रबन्ध।
- विद्यालय में अनुशासन बनाये रखना।
- स्वस्थता एवं स्वास्थ्य शिक्षा के लिए कार्यक्रमों का गठन करना।
- विद्यालय के कार्यालय की देखभाल।
- विद्यालय का बजट बनाना।
- गृह विद्यालय एवं समाज के कार्यों का समन्वय।
- विद्यार्थियों को समाज सेवा कार्यक्रमों में लगाना।
- छात्रों को मिलकर काम करने की कला के प्रशिक्षण की सुविधा।
- छात्रों की उपलब्धि का मूल्यांकन करना।
- अध्यापकों में कार्य विभाजन इस प्रकार करना कि जिससे प्रत्येक अधिकतम दक्षता प्राप्त कर सके।
- विद्यालय की नीतियों का लोकतान्त्रिक ढंग से निर्माण करना।
- विद्यालय की नीतियों के अन्तर्गत अध्यापकों को अपने कर्त्तव्यों के पालन में अधिक स्वतन्त्रता के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करना।
- शिक्षा को सहकारी उद्योग बनाना जिसमें अध्यापक और छात्र दोनों भाग ले।
- विद्यालय की नीतियों को आधुनिकतम शैक्षिक दर्शन के अनुरूप बनाना।
- अध्यापकों का कक्षा में एवं सम्मेलनों में पर्यवेक्षण करना। 21. विभागीय अधिकारियों से सहयोग करना।
विद्यालय प्रबन्धन की वर्तमान समस्याएँ (Current Problems of School Management)
भूतकाल में समाज का जीवन बहुत साधारण था और विद्यालय प्रबन्धन भी साधारण कार्य था। आधुनिक जीवन बहुत ही जटिल हो गया है और विद्यालय की प्रणाली भी बहुत जटिल हो गई है। लोकतन्त्र और विज्ञान ने नई दृष्टि और विस्तृत दृष्टिकोण दिया है। शिक्षा क्षेत्र में, बालक के विकास, शिक्षा-विधि, पाठ्यक्रम निर्माण आदि पर अनेक सिद्धान्तों के प्रतिपादन ने नवीन शैक्षिक जागृति ला दी है। निम्नलिखित तथ्य विद्यालय प्रबन्धात्मक समस्याओं को प्रभावित करते हैं-
विद्यालय जाने वाली जनसंख्या में वृद्धि:- लोग शिक्षा के प्रति अधिक जाग्रत हो गए हैं। आज हम अधिक संख्या में छात्रों को विद्यालयों में पढ़ने जाते देखते हैं। वे रुचि, आवश्यकता, सम्मान और कई बातों में एक-दूसरे से भिन्न हैं। छात्रों की पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि भी भिन्न हैं। इसने शैक्षिक प्रवन्धक की समस्या को भी बहुत ही जटिल बना दिया है।
1. आज के विद्यालय का कार्य केवल छात्र का मानसिक विकास करना ही नहीं है, अपितु उसे 'मिलकर रहने की कला' में भी निपुण करना है जो कि अपने आप में एक विषय है। 2. प्रबन्धन पर बढ़ती हुई नई माँगों की मान्यता प्रधानाचार्य के कार्य में परिवर्तन लाती है।
3. विद्यालयों से आशा की जाती है कि वे राष्ट्रीय एकता प्राप्त करने में सहायक हो। अतः इसका शैक्षिक प्रबन्ध पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
4. विद्यालय प्रारम्भिक लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों की सेवा पर लगा हुआ है। साथ ही व्यक्ति एवं उन्नतिशील समाज के सुधार के लिए इसकी सेवा को माना जाए।
इस दृष्टिकोण से विद्यालय के कार्यों को देखते हुए हम देखते हैं कि कई प्रवन्धात्मक कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती हैं। यह स्पष्ट है कि नवीन परिस्थितियाँ नवीन तकनीक माँग करती हैं और वे पुरानी, कठोर और कट्टर प्रणाली के लिए एक चुनौती है।
प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन का महत्त्व (Importance of Effective School Management)
- आधारभूत प्रदर्शन।
- प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध।
- आँकड़ों का वैज्ञानिक संग्रहण।
- पाठ्यक्रम को छात्र के विकास का साधन मानना।
- अध्यापक वर्ग के व्यक्तित्व के प्रति आदर।
- समन्वय स्थापित करना।
- अध्यापकों का विद्यालय के उत्तरदायित्व में सहयोग लेना।
- विद्यालय सामग्री का दक्षतापूर्ण उपयोग।
- वित्त का न्याययुक्त उपयोग।
- लक्ष्य निर्धारण तथा योजना।
- आवधिक निरीक्षण।
- लचीलापन।
- अध्यापकों की व्यावसायिक उन्नति
- आशावादी सिद्धान्त।
- छात्रों को प्रशासन में साथ लेना।
विद्यालय प्रबन्धन के सिद्धान्त (Principles of School Management)
विद्यालय में उचित प्रबन्ध स्थापन के लिए हमें निम्न सिद्धान्तों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए-
1. सहकारिता:- रायबर्न के शब्दों में, "विद्यालय के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि वह एक सहकारी सभा के रूप में कार्य करे.....। प्रधानाध्यापक तथा अध्यापक वर्ग के बीच सहयोग, प्रधानाध्यापक तथा छात्रों में सहयोग, अध्यापक तथा छात्रों में सहयोग और स्कूल तथा बच्चों के माता-पिता में सहयोग।” विद्यालय प्रबन्धन में सबसे पहली बात जो ध्यान देने की है वह है--सहयोग। प्रबन्धन का तात्पर्य सहयोगपूर्ण जीवन से लगाया जाए। यदि प्रबन्धन का आधार सहयोग होगा तो उसका प्रभाव बालकों पर भी पड़ेगा- वे भी परस्पर सहयोग से काम करना सीखेंगे।
2. सामाजिकता:– विद्यालय का प्रबन्धन इस प्रकार से किया जाए कि समाज और विद्यालय परस्पर एक-दूसरे के निकट आ सकें। विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं का संगठन समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाए।
3. लचीलापन, अनुकूलता तथा स्थिरता:- प्रबन्धन अधिक जटिल तथा दुरूह न हो। इसका गतिशील होना परम आवश्यक है। समाज की परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ-साथ उसमें परिवर्तन लाये जाएं। केवल परम्परागत रूढ़ियों पर चलना प्रबन्ध को जटिल और जड़ बनाना है।
4. स्पष्टता तथा सुव्यवस्था:- पाठशाला में जो भी प्रबन्ध किया जाए वह स्पष्ट तथा सुनिश्चित होना चाहिए। दूसरे शब्दों में प्रवन्ध, पाठ्यक्रम, अध्यापन, परीक्षा तथा अनुशासन आदि सबका परस्पर ठीक सम्बन्ध हो।
5. मानवीय आधार:- विद्यालय को एक जड़ या निर्जीव जड़ न माना जाए। जिस प्रकार कोई मशीन बिना चलाये नहीं चलती उसी प्रकार यन्त्रवत् प्रबन्ध भी बिना आदेश के नहीं चलता। अतः विद्यालय प्रवन्धन में मानवीय आधारों को अवश्य महत्व देना चाहिए। यह ध्यान में रखने की बात है कि अध्यापक और छात्र दोनों ही चेतनायुक्त क्रियाशील प्राणी हैं। इसके साथ जड़ पदार्थों जैसा व्यवहार करना अनुचित है।
6. विचार:- विनिमय के आधार पर प्रबन्ध को एक सहयोगपूर्ण भावना पर आधारित करने के लिए विचार-विनिमय को विशेष रूप से महत्त्व दिया जाए। ऐसे अवसर प्रदान करना आवश्यक है। छात्र, अध्यापक तथा प्रधानाध्यापक आपस में मिलकर विचार-विनिमय द्वारा प्रवन्ध की कमी समझने का प्रयास करें तथा उसके दोषों को सहयोगपूर्ण ढंग से दूर करने का प्रयास करें।
7. प्रबन्धन को केवल साधन माना जाए:- विद्यालय प्रबन्धन को केवल उत्तम साधन के रूप में लिया जाए। उसे शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति का साधन मात्र ही माना जाए न कि साध्य। जिन विद्यालयों में प्रबन्धन को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है वहाँ एक प्रकार से सैनिक अनुशासन का वातावरण रहता है। अध्यापक अनि से आज्ञा का पालन करते हैं।
8. स्वशासन का अवसर:- विद्यालय का प्रबन्धन स्वशासन पर आधारित होना चाहिए। स्वशासन छात्रों में आत्मविश्वास उत्पन्न करता है जिससे विद्यालय प्रबन्धन में उसका सहयोग मिलता है।
9. अभिभावक सहयोग की प्राप्ति:- विद्यालय का प्रबन्धन करते समय छात्रों के अभिभावकों का सहयोग अवश्य लिया जाए। अभिभावकों का सहयोग प्राप्त करने से विद्यालय समाज के निकट आता है। दूसरे, अनुशासन की स्थापना में विशेष सरलता रहती है।
जहाँ तक सम्भव हो, प्रत्येक प्रधानाध्यापक को उपर्युक्त सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर विद्यालय का प्रबन्ध करना चाहिए। कुशल प्रबन्धक को छोटी-छोटी बातों की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यथासम्भव प्रत्येक विषय को महत्त्व दिया जाए।