Evolution of Measurement in Ancient and Modern Period in hindi

प्राचीन व आधुनिक काल में मापन

व्यक्ति की निष्पत्ति, ज्ञान एवं गुण, इत्यादि का पता लगाने में अत्यन्त प्राचीन काल से ही किसी-न-किसी प्रकार के परीक्षणों एवं मापन विधियों का प्रयोग होता रहा है। प्राचीन काल में चीन, जोर्डन, मिस्र, आदि संस्कृतियों में इस प्रकार के अनेक प्रमाण मिले हैं। पर आधुनिक काल में जिस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों में परीक्षण प्रयुक्त होते हैं, यह एक नये प्रकार की प्रगति है।

Evolution of Measurement in Ancient and Modern Period

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से ही निष्यत्ति, ज्ञान, बुद्धि, अभियोग्यता, व्यक्तित्व, गुण, इत्यादि के मापन के लिए व्यापक रूप से परीक्षणों का प्रयोग होने लगा। बीसवीं शताब्दी में बने अनेक परीक्षणों का तो प्रमापीकरण भी हुआ और अब सर्वत्र प्रमापीकृत परीक्षणों की संख्या में वृद्धि हो रही है। अनेक विश्वविद्यालयों, सरकारी कार्यालयों, शिक्षालय प्रकाशको एवं अन्य संस्थाओं द्वारा परीक्षणों का प्रकाशन हो रहा है। स्वयं भारत में इनके प्रकाशन के अनेक केन्द्र है।

प्राचीन काल में मापन

मौखिक परीक्षाओं का एक उल्लेख ओल्ड टैस्टार्मेण्ट में मिलता है। गिलैडाइस अपने शत्रु ऐफ्रेमाइट्स से जोर्डन की रक्षा कर रहे थे। जोर्डन को पार करने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह निर्णय करने के लिए कि ये ऐफ्रेमाइट्स है या नहीं, उन्होंने एक विधि निकाली। वे व्यक्ति से पूछते थे- "क्या तुम ऐफ्रेमाइट हो ?" जब वह कहता था "नहीं" तो वे उससे कहते थे— 'शिवोलेथ' शब्द का उच्चारण करो। यदि वह ठीक से इस शब्द का उच्चारण कर लेता था तो वे उसे अपने देश का समझ कर छोड़ देते थे। पर यदि वह 'शिबोलेथ' (Shibboleth) के स्थान पर 'सिबोलेथ' (Sibboleth) बोलता था, तो यह विश्वास किया जाता था कि वह ऐफ्रेमाइट है, क्योंकि ऐफ्रेमाइट 'श' ध्वनि का ठीक से उच्चारण नहीं कर सकते। इस शब्द का ठीक से उच्चारण न कर सकने के कारण हजारों ऐफ्रोमाइटों को मौत के घाट उतार दिया गया।

यूनान में सुकरात (470-399 ई. पू.) एथेन्स में अपने शिष्यों के ज्ञान की परख करने एवं अपने विचारों को समझाने के लिए उनसे एक के बाद दूसरा प्रश्न पूछता था। उसकी विधि इतनी प्रसिद्ध हुई कि इसका नाम ही 'सुकरात की विधि' (Socratic Method) पड़ गया। ईसा से 500 वर्ष पूर्व यूनान के एक अन्य नगर स्पार्टा में युवकों के शारीरिक विकास का परीक्षण करने के लिए भी अनेक कठिन कार्यों को कराकर उनकी परीक्षा ली जाती थी।

ईसा से 2200 वर्ष पूर्व चीन में राज्य के अफसरों का चयन करने के लिए लिखित परीक्षाओं की व्यवस्था थी। ईसा से 29 वर्ष पूर्व तक लोक सेवको के चयन में निश्चित रूप से लिखित रूप में परीक्षाओं का उपयोग किया जाने लगा था। इससे चीनी संस्कृति पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा क्योंकि एक ओर तो सारे राज्यक्षेत्र में एक प्रकार की व्यवस्था होने से एकता बनाने में सहायता मिली, दूसरे, सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए सबको समान अवसर प्राप्त हुए।

आधुनिक युग में मापन

प्राचीन काल में बुद्धि, व्यक्तित्व गुण, ज्ञानोपार्जन, आदि क्षेत्रों में मापन इतने व्यापक रूप में कभी प्रयुक्त नहीं हुए, जितने कि आजकल। विभिन्न क्षेत्रों में इनके विकास का संक्षिप्त इतिहास निम्न प्रकार से है-

निष्पत्ति परीक्षण

मध्य काल में तेरहवीं शताब्दी में बोलना एवं पैरिस विश्वविद्यालय में मौखिक परीक्षाओं का प्रयोग होता था। इंग्लैण्ड में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों में 1702 में लिखित परीक्षाएँ प्रचलित थी। अमरीका में 1845 में बोस्टन में परीक्षाएं प्रयुक्त होती थी। इस समय होरेंस मैन (Horance Man) 'मैट्स शिक्षा मण्डल' का मन्त्री था। उसने एक विद्यालय पत्रिका में, जिसका वह सम्पादक था, परीक्षाओं के सुधार के लिए अनेक सुझाव दिये। इसमें उसने मौखिक परीक्षाओं के दोषों एवं लिखित परीक्षाओं के उपयोगों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। तत्पश्चात् एकः अंग्रेजी अध्यापक जोर्ज फिशर ने प्रतम वस्तुगत परीक्षाओं का सूत्रपात किया। सन् 1864 में 'ग्रीनविच चिकित्सालय विद्यालय' में उसकी 'प्रमाप पुस्तकों' (Scaler Books) का प्रयोग होता था। इनके माध्यम से व्याकरण, रचना, गणित, हस्तलेखन, वर्ग-विन्यास, सामान्य इतिहास, आदि विषयों में निष्पत्ति का मापन होता था।

अमरीका में वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के सूत्रपात का श्रेय डॉ. जे. एस. राइस को है। इन्होंने 1904 में अनेक विद्यार्थियों को एक वर्ण-विन्यास परीक्षा दी और परीक्षा के परिणामों का विश्लेषण किया। राइस इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जिन विद्यार्थियो ने 8 वर्ष तक प्रतिदिन 30 मिनट वर्ण विन्यास का अध्ययन किया, वे उन विद्यार्थियों से श्रेष्ठतर नहीं थे, जिन्होंने 8 वर्ष तक केवल 15 मिनट प्रतिदिन ही वर्ग-विन्यास का अध्ययन किया था। राइस के कथन का काफी विरोध हुआ। पर कालान्तर में शिक्षाशास्त्री इस बात में विश्वास करने लगे कि राइस की बात सच है एवं शिक्षा क्षेत्र में वस्तुगत मापन अत्यन्त आवश्यक है। पर सन् 1897 में जब 'राष्ट्रीय शिक्षा संस्था के प्रबन्ध विभाग' की कॉन्फ्रेंस में राइस ने अपने विचार रखे तो उनके कथन पर काफी आश्चर्य एवं अविश्वास प्रकट किया गया।

थॉर्नडाइक ने सन् 1904 में शैक्षिक मापन पर प्रथम पुस्तक प्रकाशित की। सन् 1908 में उसके शिष्य स्टोन ने गणितीय तर्क पर प्रथम प्रमापीकृत परीक्षण प्रकाशित किया। सन् 1909 में स्वयं थॉर्नडाइक ने बालकों के लिए हस्तलेखन मापदण्ड का प्रकाशन किया। 1930 में ओडेल ने शैक्षिक मापन पर एक अन्य पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उसे काल में प्रचलित अनेक परीक्षणों का उल्लेख है। प्रारम्भ में अमरीका में इन प्रमापीकृत परीक्षणों का काफी विरोध हुआ। पर शीघ्र ही अनेक केन्द्रो, शिक्षा संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों में इनकी तीव्र प्रगति होने लगी।

बुद्धि परीक्षण

प्राचीन काल में व्यक्तिगत विभेदों को मान्यता दी जाती रही है। पर अठारहीं शताब्दी के अन्त में सन् 1795 में ग्रीनविच की ज्योतिष प्रयोगशाला में मैक्सिलीन ने अपने एक सहयोगी को केवल इस कारण पदच्युत कर दिया कि एक रेखा से सितारे के संक्रमण का निरीक्षण करने में उसे कुछ देर लगती थी। बाद में यह ज्ञात हुआ कि सब व्यक्तियों का निरीक्षण काल समान नहीं होता। इसमें व्यक्तिगत विभेद होता है। इस प्रकार व्यक्तिगत विभेद के सिद्धान्त की वैज्ञानिक क्षेत्र में मान्यता हुई। लीपजिग में वुण्ट की प्रयोगशाला में व्यक्तिगत विभेदों पर अध्ययन हुआ और यहाँ से शिक्षा प्राप्त कर जब कैटेल अमरीका गये तो उन्होंने इन विभेदों का मापन करने के लिए सन् 1890 में परीक्षणों का एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया।

आधुनिक बुद्धि परीक्षणों का वास्तविक सूरत सन् 1905 में हुआ, जब फ्रांस में बिने ने बुद्धि परीक्षण विकसित किया। इसका नाम 'बिने-साइमन मापदण्ड' (Binet-Simon Scale) था। सन् 1908 तथा 1911 में स्वयं बिने ने इसका परिवर्द्धन किया। तत्पश्चात् अन्य देशों में, विशेषकर अमरीका में इनके अनेक परिवर्द्धन हुए एवं इनके आधार पर अन्य अनेक परीक्षण बने हैं। सन् 1911 में ऐसा एक परिवर्द्धन वाइनलैण्ड स्कूल के डायरेक्टर गोडार्ड ने किया। 1916 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में टरमैन ने 'बिने-साइमन मापदण्ड का परिवर्द्धन किया। इसे 'स्टेनफोर्ड-परिवद्धन' कहते हैं। परिवर्तित परीक्षण का नाम 'स्टेनफोर्ड बिने परीक्षण' है। सन् 1937 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में ही टरमैन तथा मैरिल ने दुबारा इसका परिवर्द्धन किया। इसे 'टरमैन-मरिल परिवर्तन कहते है।

विशिष्ट अभियोग्यता परीक्षण

अभियोग्यता का अर्थ है कि व्यक्ति को वह क्षमता जिसके आधार पर हम कह सके कि प्रशिक्षण दिये जाने पर कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र में सफल होगा या नहीं। अभी तक हमने सामान्य बुद्धि के परीक्षणों का वर्णन किया है। विशिष्ट क्षेत्रों में व्यक्ति की सफलता का पूर्व-कथन करने के लिए भी अनेक परीक्षण बने हैं। ये परीक्षण विशिष्ट बुद्धि अर्थात् बुद्धि के किसी एक पक्ष एवं किसी निश्चित क्षेत्र में सफलता से सम्बन्धित हैं। इसी आधार पर इन परीक्षणों का नामकरण भी किया गया है; जैसे- लिपिक अभियोग्यता परीक्षण, संगीत अभियोग्यता परीक्षण, कलात्मक अभियोग्यता परीक्षण, विधि अभियोग्यता परीक्षण आदि।

सन् 1913 में मुन्स्टेरबर्ग ने टेलीफोन में कार्य करने वाली लड़कियों एवं मोटर बालो के लिए अभियोग्यता परीक्षण बनाये। इसके पश्चात् अनेक परीक्षणों की रचना होने लगी। 1915 मे सीशोर ने संगीत प्रज्ञा परीक्षण की रचना की। 1918 में स्टैन्क्यूस्ट सामान्य यान्त्रिक योग्यता परीक्षण बना। इसी वर्ष रॉजर्स ने गणितीय योग्यता का एक परीक्षण बनाया। सन् 1924 में आयोवा नियुक्ति परीक्षाओं का प्रकाशन हुआ। आजकल सामान्य बुद्धि परीक्षणों के स्थान पर विशिष्ट अभियोग्यता परीक्षणों के निर्माण की प्रवृत्ति है।

व्यक्तित्व परीक्षण

प्रागैतिहासिक काल से ही व्यक्ति एक-दूसरे के गुणों का मूल्यांकन करके अपने निर्णय देने लगे थे। पर ये निर्णय या मूल्यांकन विश्वसनीय नहीं कहे जा सकते। कालान्तर में अनेक दार्शनिकों एवं देहशास्त्रियों ने मनुष्य के गुण एवं व्यवहार का मानसिक एवं दैहिक आधार पर चिन्तन किया। हस्तरेखाशास्त्र, मुखाकृति-विज्ञान, आदि विद्याओं का विकास हुआ। पर इसे व्यवहार एवं व्यक्तित्व के मापन की दृष्टि से हम अधिक महत्त्व नहीं दे सकते।

चरित्र गुण के वैज्ञानिक मापन के सूत्रपात का श्रेय गाल्टन को है। यह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हमारा व्यवहार एवं गुण स्थायी है। अतः इसका मापन सम्भव है। उन्होंने निर्णय विधि का प्रयोग करके चरित्र गुणों के मापन का प्रयास किया। बाद में चलकर शैक्षिक एवं व्यावसायिक संदर्शन की व्यावहारिक आवश्यकता के कारण व्यक्तित्व एवं चरित्र गुण के मापन में लोगों की रुथि बढ़ी। सन् 1912 में फरर्नल्ड ने चरित्र गुण के मापन के लिए परीक्षण बनाये। हार्नशॉनं तथा मे ने 1924-29 के मध्य 'चरित्र-शिक्षा अन्वेषण' (Character Education Inquiry) का प्रकाशन किया। चरित्र-गुण परीक्षण के क्षेत्र में यह सबसे महत्त्वपूर्ण कदम था।

व्यक्तित्व गुणों के मापन की दशा में वर्गश्रेणी मापदण्डो (Rating Scales) प्रश्नावलियों (Questionnaires) एवं अन्य विधियों का प्रयोग हुआ है। प्रथम उल्लेखनीय वर्गश्रेणी मापदण्ड का प्रयोग गाल्टन ने सन् 1883 में मानसिक प्रतिमाओं की तीव्रता का पता लगाने के लिए किया था। तत्पश्चात् स्कॉट का 'मनुष्य का मनुष्य से मिलान मापदण्ड (Scott Man-to-Man Scale) बना। इसका उद्देश्य प्रथम महायुद्ध में अफसरों में से नेतृत्व की योग्यता वाले व्यक्तियों का चयन करना था। सन् 1923 में फ्रायड के 'ग्राफिक वर्गश्रेणी मापदण्ड (Freud's Graphic Rating Scale) का प्रकाशन हुआ। कुछ अन्य प्रमुख वर्गश्रेणी मापदण्डों में 'लेयर्ड मापदण्ड' (Laird's Scale 1925), 'ब्रिजिजि मापदण्ड' (Bridges Scale 1931) आदि है।

प्रश्नावली विधि

प्रश्नावली विधि का आविष्कार गाल्टन ने सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में किया। पर उसने यह नामकरण नहीं किया। स्टैनले हाल ने अमरीका में सन् 1880 में प्रश्नावली विधि प्रयुक्त की। आज भी समाज के साथ अभियोजन, अभिवृत्ति, रुचि एवं व्यक्तित्व गुण, आदि के मापन में प्रश्नावली का मापन होता है। सैन्य जीवन की कठिनाइयों के साथ सैनिकों की अभियोजन शक्ति का मापन करने के लिए वुडवर्थ ने सन् 1917 में 'व्यक्तित्व प्रदत्त पत्र' (Woodworth Personal Data Sheet) की रचना की।

व्यक्तित्व परीक्षण के लिए साहचर्य विधि का भी प्रयोग होता है। वर्गश्रेणी विधि एवं प्रश्नावली की भाँति इस विधि के सूत्रपात का श्रेय भी गाल्टन को है। सन् 1879 में गाल्टन ने 'मुक्त साहचर्य' विधि का निर्माण किया। 1905 में जुंग ने 100 शब्दों की एक सूची बनाई। इसके प्रयोग से जो प्रतिक्रियाएँ प्राप्त होती है, उनका विश्लेषण करके एक निश्चित विधि के द्वारा भावनात्मक ग्रन्थियों का पता लगाते हैं। 1911 में केण्ट तथा रोजनोफ ने शब्द-सूची (Kent-Rossanoff Word List) बनाई बुडवर्थ, ईडर तथा अन्य व्यक्तियों ने भी इस प्रकार की शब्द सूचियाँ बनायी हैं।