निदानात्मक ​​परीक्षण का अर्थ, परिभाषा, महत्व एवं उद्देश्य | Meaning and Definition of Diagnostic Test in hindi

निदानात्मक परीक्षण का अर्थ (Meaning of Diagnostic Test)

'निदान' शब्द अंग्रेजी भाषा के 'डायगनोसिस' (Diagnosis) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जिसका शाब्दिक अभिप्राय मूल कारण अथवा रोग निर्णय है। यदि अध्यापक अपने विद्यार्थियों में व्याप्त मन्दता, पिछड़ेपन या उसकी सीखने सम्बन्धी समस्याओं से अवगत होकर उसका निदान करता है अथवा विद्यार्थियों को इन समस्याओं से निपटने के लिए जो शिक्षण करता है वही निदानात्मक शिक्षण है।

निदानात्मक परीक्षण का अर्थ, परिभाषा, महत्व एवं उद्देश्य

निदानात्मक परीक्षण ज्ञान प्राप्ति में आने वाली बाधाओं को ज्ञात करने का प्रयास करते हैं। इसके द्वारा विषयवस्तु को प्रत्येक इकाई में बालक की विशिष्टता एवं कमजोरियों को जानने का प्रयास किया जाता है, उसके कारणों की खोजबीन की जाती है ताकि उपचारात्मक कदम उठाये जा सके और बालक की शिक्षा में प्रगति की जा सके।

निदानात्मक परीक्षण की परिभाषा (Definition of Diagnostic Test)

गुड (Good) के अनुसार, "निदान का अर्थ है-अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों और कमियों के स्वरूप का निर्धारण।"

योकम एवं सिम्पसन (Yokam and Simpson) के अनुसार, "निदान किसी कठिनाई का उसके चिह्नों या लक्षणों से ज्ञान प्राप्त करने की कला या कार्य है। यह तथ्यों के परीक्षण पर आधारित कठिनाई का स्पष्टीकरण है।"

मरसेल (Mursell) के अनुसार, "जिन शिक्षण में छात्र की विशिष्ट त्रुटियों का निदान करने का विशेष प्रयास किया जाता है, उसको बहुधा निदानात्मक शिक्षण कहा जाता है।"

नैदानिक परीक्षण के उद्देश्य (Objectives of Diagnostic Test)

नैदानिक परीक्षण के निम्नांकित उद्देश्य हैं-

  1. किसी विशिष्ट विषय के अध्ययन में छात्र की कठिनाइयों का पता लगाना।
  2. ज्ञानार्जन में बाधक तत्वों का पता लगाकर उसमें सुधार लाने के उपाय बताना।
  3. शिक्षण विधि में सुधार के लिए सुझाव देना।
  4. पाठ्य-पुस्तकों तथा पाठ्यक्रम में छात्रों की विशिष्टताओं और कमजोरियों को ध्यान में रखकर परिवर्तन लाना।
  5. उपलब्धि परीक्षण के पदों के निर्धारण में सहायता करना।
  6. मूल्यांकन प्रक्रिया को और अधिक सार्थक एवं प्रभावशाली बनाने में सहायता करना।
  7. उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करना।
  8. साफल्य परीक्षा (Achievement Test) के निर्माण हेतु विभिन्न प्रकार के प्रश्नों के चयन में सहायता करना।

निदानात्मक परीक्षाओं की विशेषताएँ (Characteristics of Diagnostic Test)

किसी निदानात्मक परीक्षा को अध्यापक एवं छात्रों की दृष्टि से उपयोगी होने के लिए उसमे निम्न गुण का होना अनिवार्य हैं—

  1. ये परीक्षाएँ पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होती हैं।
  2. ये परीक्षाएँ प्रमापीकृत होती हैं परन्तु कुछ विशेषज्ञों का विचार हैं कि निदानात्मक परीक्षाओं को प्रमापीकृत नहीं किया जाता है।
  3. ये परीक्षाएँ विशिष्ट उद्देश्यों के अनुरूप होती हैं।
  4. ये परीक्षाएँ बालक की योग्यता का मापन नहीं करती, बल्कि विषय सम्बन्धी कमजोरी का निदान करके उसके उपचार की व्यवस्था करती है।
  5. इन परीक्षाओं में समय-सीमा निर्धारित नहीं की जाती।
  6. ये परीक्षाएँ विश्लेषणात्मक होती है तथा किसी भी प्रक्रिया के अंशों को पूर्ण विश्लेषण करती हैं।
  7. इन परीक्षाओं का आधार ऐसे तथ्य या मानक होते हैं जिन्हें प्रयोगों के आधार पर स्थापित किया जाता है।
  8. इन परीक्षाओं में विद्यार्थी द्वारा प्राप्त अंकों को कोई महत्व नहीं दिया जाता। इसमें तो केवल यह देखा जाता है कि विद्यार्थी किस स्तर की कठिनाई वाले प्रश्नों को हल कर लेता है।
  9. ये परीक्षाएँ सीखने वाले की मानसिक प्रक्रिया के स्वरूप को बिल्कुल स्पष्ट कर देती है।
  10. ये परीक्षाएँ बालकों की प्रगति का वस्तुनिष्ठ रूप से परीक्षण करती हैं।

निदानात्मक शिक्षण के क्षेत्र (Scope of Diagnostic Test)

निदानात्मक शिक्षण के विषय में अध्यनोपरान्त यह पता चलता है कि निदानात्मक शिक्षण का प्रयोग सामान्यतया आधारभूत विषयों तक ही सीमित हैं। जैसे- अंकगणित, लेखन, उच्चारण तथा वाचन आदि। निदानात्मक शिक्षण के इन आधारभूत विषयों तक ही सीमित होने का कारण योकस एवं सिम्पसन ने इस प्रकार बताया है, "इन विषयों के शिक्षण में अधिगम के विशिष्ट रूपों की आवश्यकता पड़ती है जिनका सूक्ष्मता से परीक्षण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त ये आधारभूत विषय, अन्य विषयों के ज्ञान की प्राप्ति में प्रगति करने के मूल आधार हैं।" योकस एवं सिम्पसन ने आगे कहा है कि, "यह विश्वास किया जाता है कि आने वाले कुछ वर्षों में निदान करने की विधियों में इतना विस्तार हो जायेगा कि उसके अन्तर्गत विद्यालय पाठ्यक्रम के अधिक विषय समाहित हो जायेंगे।

निदानात्मक परीक्षण की उपयोगिता एवं महत्त्व (Utility and Importance of Diagnostic Tests)

शैक्षिक क्रिया-कलाप में निदानात्मक परीक्षण की उपयोगिता एवं महत्त्व को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

  1. विद्यार्थियों के अधिगम में आने वाली समस्याओं, बाधाओं को ज्ञात करना और उनके निराकरण के लिए उपचारात्मक सुझाव प्रदान करना।
  2. किसी विशिष्ट विषय के अधिगम में पिछड़े बालकों को चिन्हित करना और उनके लिए उपचारात्मक सुझाव देना।
  3. भाषा तथा अन्य विषयों में जातिगत विशिष्टताएँ एवं कमियाँ खोजना और उनका उपचारात्मक सुझाव देना ।
  4. शिक्षण प्रक्रिया के सुधार के आधारों को ज्ञात करना । 5. अध्ययन प्रक्रिया में विद्यमान अवरोधों को ज्ञात करना एवं उसके अनुसार वांछित बदलाव लाना।
  5. पाठ्यक्रम को अत्यधिक उपयोगी बनाने के लिए नवीन सुझाव प्रदान करना।
  6. पाठ्य-पुस्तकों को अत्यधिक उपयोगी एवं लाभदायक बनाने के लिए नवीन सुझाव प्रदान करना।
  7. विद्यार्थियों की समस्याओं एवं अवरोधों के आधार पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक दिशा-निर्देश प्रदान करना।
  8. मूल्यांकन प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए मूल्याकन पद्धतियों में बदलाव करना।

निदान प्रक्रिया (Diagnostic Process)

किसी समस्या के समाधान के लिए एक व्यवस्थित प्रक्रिया का होना आवश्यक है। निदान की प्रक्रिया निम्नलिखित पदों के माध्यम से पूर्ण होती है-

1. नैदानिक विद्यार्थियों का चयन:- निदान प्रक्रिया का यह प्रथम पद है। इसके अन्तर्गत उन विद्यार्थियों का चयन किया जाता है जो एक अथवा कई विषयों में पिछड़े या कमजोर होते हैं, जिन्हें विद्यालय में सामंजस्य बैठाने में समस्या की अनुभूति होती हैं और वे असामान्य व्यवहार करते हैं। इस तरह के विद्यार्थियों का चयन विद्यालय में आयोजित परीक्षाओं द्वारा, बुद्धि परीक्षण द्वारा, उपलब्धि परीक्षणों द्वारा, अध्यापकों के अनुभवों द्वारा, साक्षात्कार द्वारा और अवलोकन द्वारा किया जा सकता है।

2. विद्यार्थियों के कठिनाई स्थलों का चयन:– निदान प्रक्रिया का यह द्वितीय पद है। इसके अन्तर्गत साक्षात्कार अवलोकन अथवा बुद्धि एवं उपलब्धि परीक्षणों के माध्यम से विद्यार्थियों द्वारा अनुभव की जाने वाली कठिनाइयों की पहचान की जाती है। अध्यापकों के अनुभव एवं उनके द्वारा किये जाने वाले अनौपचारिक परीक्षण, अवलोकन अथवा साक्षात्कार इस कार्य के लिए ज्यादा प्रभावी है।

3. कठिनाई के कारणों का विश्लेषण:- निदान प्रक्रिया का यह तृतीय पद है। इसके अन्तर्गत अध्यापक विद्यार्थियों को कठिनाइयों के कारणों का पता लगाता है। अध्यापक स्वानुभव द्वारा विद्यार्थियों से बातचीत के माध्यम से अध्यापक साथियों एवं अभिभावकों से चर्चा के द्वारा इनको पहचानने का प्रयास करता है। इन कारणों का आधार पर विद्यार्थियों के शारीरिक दोष, मानसिक दोष, संवेगात्मक अस्थिरता, अरुचि, गलत आदतें, पारिवारिक एवं विद्यालयी वातावरण आदि कुछ भी हो सकता है।

4. उपचारात्मक प्रक्रिया:- निदान प्रक्रिया का यह चतुर्थ पद है। इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों की कमजोरी, पिछड़ेपन अथवा कठिनाई का निदान होने के उपरान्त उन्हें दूर करने का कार्य किया जाता है। इसे दूर करने के लिए उचित एवं कारगर योजना निर्मित की जाती है जिसमें कठिनाइयों के कारणों और उन्हें दूर करने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का वर्णन रहता है। इसके साथ इसमें यह भी वर्णित होता है कि कठिनाई का निराकरण व्यक्तिगत रूप से किया जाना है अथवा सामूहिक रूप से किया जाता है।

5. रोकथाम के उपाय ( Preventive):- निदान प्रक्रिया का यह पंचम और अन्तिम पद है। इसके अन्तर्गत कठिनाइयों के कारणों का विश्लेषण करके भावी दिनों में इनके द्वारा गलतियां न्यूनतम हो, इसकी योजना बनाकर प्रयास किये जाते हैं। विद्यालय के वातावरण एवं घरेलू वातावरण में सुधारात्मक परिवर्तन, पाठ्यक्रम में संशोधन परीक्षा प्रणाली में सुधार आदि कुछ उपाय हो सकते हैं जिनके प्रयोग से भावी गलतियों को अल्प किया जा सकता है।

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